Sunday, November 28, 2010

रिश्तो में दरार---एक कडवा सच !!

अतुल को उदास देखकर सहज ही पूछा था क्या हुआ ?
----- कुछ नहीं , यूँ ही , कहकर उसने टाला था ।
-----फ़िर भी ?--- उदास लग रहे हो ?
 ----- नहीं तो, क्या करूँगा उदास होकर ?
------ क्या घर की याद आ रही है ?
------नहीँ , क्या करेंगे याद करके ?
------अरे , ये भी कोई बात हुई ? घर की याद तो आती ही है ।
----- कैसा घर ?, किसका घर ?
-----क्यूँ ? मैने पूछा।
------- केजी टू से तो यहीं हूँ , अब यही मेरा घर है ।
----- फ़िर भी घर पर कौन -कौन है ?
------- सब हैं 
----- फ़ोन कर लिया करो ।
------ क्या करेंगे फ़ोन करके ?
-----पूछ लिया करो सब कैसे हैं ?
-----क्या पूछेंगे ? हमेशा रटारटाया जबाब होता है---सब अच्छे हैं ,और जब हमसे पूछेंगे तो हम भी वही कहेंगे---अच्छे हैं ।
----- अरे , तो कौन -कौन हैं घर में, सबका नाम लेकर पूछ्ना --- वो क्या कर रहे हैं ?
--------- सब हैं--- मम्मी-पापादीदी , दादादादी , अंकल - आंटी , सबके बारे में पता है- दो लोग टी वी देख रहे होंगे ,तीन खाना खा रहे होंगे और दो बतिया रहे होंगे इस समय , यही उनका रूटीन है 

------मैं अवाक थी , १० वीं में पढने वाले बच्चे अतुल का ऐसा व्यवहार अपनों के प्रति देखकर, फ़िर भी पूछा---छुट्टियों में घर जाओगे ?
-----हाँ , जायेंगे---अनमने मन से जबाब दिया 
-----क्या करते हो वहाँ अपने गाँव में जाकर ?
-----कुछ नहीं , मैं तो घर से ही नही निकलता , अगर अपने गाँव में घूमने भी निकलूँ तो गलियों में ही गुम जाऊँगा ,वापस घर तक भी नही पहुँच पाऊँगा ।
----- अरे ,ऐसा क्यों ?-----क्या तुम्हारा गाँव बहुत बडा है ?
-----नहीं बरसों से बाहर हूँ , अपने ही गाँव में अनजान हूँ , वहाँ कोई मुझे नही पहचानता , जब जाता हूँ तो सब ऐसे देखते हैं---जैसे जंगल से कोई जानवर घुस आया हो ।
-----ऐसा नही कहते बेटा ।( मैनें समझाते हुए कहा )
-----ऐसा ही है ,वो तो हमारी किराना दुकान है, तो मैं वहीं बैठा रहता हूँ दिनभर लोग आते -जाते रहते हैं , तो थोडा मन लगा रहता है ।
-----अच्छा बताओ , आप के लिए सब खुश तो होते होंगे कि ये शहर में पढता है ।
------हें हें हें----क्या खुश होते होंगे (हँस पडा अतुल)-----पडोसी को ही मैं और मुझे पडोसी नहीं जानता ।
-----चलो छोडो , ये बताओ ---आपके वहाँ से कौनसा शहर पास पडता है ?
----- इलाहाबाद ।
-----वाह ,तो वहाँ के बहुत से बच्चे इलाहाबाद में भी पढते होंगे ?
-----हाँ ।
-----जब आप जाते हैं तो वे भी मिलते होंगे ? तब आपस में एक- दूसरी जगहों के बारे में तो बातें होती होंगी ?
-----हाँ , आते तो वे भी हैं मगर हमारी छुट्टियों का समय अलग-अलग होने से आपस में मिल नहीं पाते हैं और वैसे भी एक-दूसरे को जानते कहाँ है ? जो पूछें ?
-----तो आप इतनी दूर यहाँ क्यों आये पढने ?, अपने पास के शहर क्यों नहीं गये ?
-----पता नहीं ,बस पापा ने यहाँ भेज दिया --- कहते हैं पास में तो रखना ही नहीं है, ठीक है ---मैने भी सोच लिया--- अब वो चाहेंगे तो भी मैं पास में कभी नही रहूँगा ।--- जॊब भी दूर ही ढूंढूगा ।-------

---------मैं चुप , निरुत्तर हो गई , ऐसा कडवा सच जानकर जिसे झुठ्लाया नही जा सकता ।

Thursday, November 25, 2010

यादें बस यादें रह जाती है ...

तारीखें हमेशा दर्ज हो जाती है...जेहन में...
फ़िर उठती है सिहरन...... मन में.....
काँपती है रूह अब भी......तन में.....
फ़िर बितेगी रात बस.....चिंतन में......




 






सुबह की शुरूआत -माँ शारदे की वन्दना से



सुनिये गिरीश बिल्लोरे "मुकुल" जी की एक रचना (इसे इस ब्लॉग से पढ़ा)

 

Sunday, November 21, 2010

आओ लिखो--- बढ़िया...लाजवाब....खूबसूरत ....पंक्तियाँ....(हा हा हा..)

पैसा कमाएं और खूब कमाएं............

ये आपकी जरूरत और हक है,

मगर ...कभी भी कमाया पैसा --व्यर्थ न गंवाएं.....


राह दिखाएं और खूब दिखाएं...........

ये आपकी जिम्मेदारी और कर्तव्य है ,

पर कभी भी किसी को --गुमराह न करें......


हाथ थामें और साथ चलें..........

ये आपका फैसला और शौक है ,

पर कभी भी किसी को --मझधार मे  न छोड़े..........

Thursday, November 18, 2010

जाने कब??

एक पुरानी कविता (?) आज फ़िर से ----

यहाँ हर एक की अपनी कहानी होती है ,
कभी खुद तो कभी दूसरो की जबानी होती है।
हमे अपने बारे मे सब पता होता है ,
क्या अच्छा होता है?,क्या बुरा होता है।
अपने फ़ायदे की हर बात, हम मानते है,
और स्वार्थपूर्ती के लिये हर जगह की खाक छानते है।
जिससे हो हमे नुकसान ,ऐसी हर बात टालते है,
और जरा-सी बात पर ही ,दूसरो को मार डालते है।
कुछ लोग जब यहाँ अपनी लाइफ़-स्टोरी गढते है,
तभी कुछ लोग, औरों की लाइफ़-स्टॊरी पढते है।
यहाँ लोग अपने पापो का घडा दूसरो के सर फ़ोडते है,
और दूसरो की चादर खींचकर मुंह तक ओढते है।
जो कुछ हम करते है,या करने वाले होते है ,सsssब जानते है,
फ़िर भी अपने आप को क्यो??? नही पहचानते है ।
जाने कब??? वो दिन आयेंगे ,
जब हम अपने आप को बदल पायेंगे!!!!!!!!!!

Sunday, November 14, 2010

उफ़्फ़... ये पिद्दे और इनकी अदाएं......बाल दिवस पर विशेष

 आज मन था मेरे गाये बच्चों के गीत सुनवाने का ,पर किसी कारण से अभी नहीं सुनवा पा रही हूँ ,शायद शाम तक .....तब तक रविवार बिताइये इनके साथ----

 बच्चे मन के सच्चे----

 रेलगाड़ी रेलगाड़ी---

 मुन्ना बड़ा प्यारा----

 चुन-चुन करती--
 

लकड़ी की काठी--


 म्याँऊ-म्याँऊ------


 नानी तेरी मोरनी(नया)---



ईचक दाना----


काबुली वाला आया---

चंदामामा दूर के ---


मैने कहा फ़ूलों से ---


रे मामा रे मामा रे-----

चंदा है तू----


है ना बोलो बोलो----


 बोल मेरे मुन्ने----


कुछ और याद आ रहे थे --अभी नही मिल पाये ---
तीतर के दो आगे तीतर .....
मुर्गा-मुर्गी प्यार से देखे....
और-और-और-------

Thursday, November 11, 2010

माँ कैसी होती है ???



पहले सुबह उठकर
सपने बुनती थी
अब सपने सोचकर ही
रोज सोती है
माँ ऐसी ही होती है।
पहले खोई रहती थी
सपनों में
अब सपनों के
खोने से डरती है
माँ ऐसी ही होती है  ....   



Tuesday, November 9, 2010

आत्मग्लानि........क्षमा याचना...

बहुत कोशिश करती हूँ पर हर दिवाली मे उसका चेहरा जैसे आँखो के सामने से हटने का नाम नहीं लेता....बात करीब १९/२०  साल पहले की है ...राँची में रहते थे हम....काली पूजा देखने गई थी ये पहला मौका था ,पति और दोनों बच्चे साथ थे , बेटे का हाथ पिता ने थाम रखा था, और मेरी बेटी गोदी में थी मेरे । हम बड़ी उत्सुकता से एक के बाद एक पंडाल देखते  जा रहे थे ।बहुत भीड़ थी, पास से एक ट्रक गुजर रहा था ड्राइवर और क्लीनर के बीच में बैठे देखा था उसे ....७-८ साल, करीब मेरे बेटे की उम्र का बच्चा था...बदन पर सिर्फ़ एक नेकर...और जो कुछ मैने देखा उसे आज तक किसी को बता नहीं पाई थी सिर्फ़ इसलिये कि मेरे बच्चे इस घटना को जानकर डर न जायें.(एक बार जिक्र भी किया है--कुछ अधूरा -सा ---- संजय अनेजा जी की पोस्ट को पढ़कर उनके ब्लॉग पर  )(आभार संजय जी का इसे पढ़ते ही याद दिलाया उन्होने ) .किसी फ़िल्म के दॄश्य जैसा था वो दॄश्य...(अमिताभ जी की कोई फ़िल्म थी )...बच्चे के दोनों हाथ बंधे हुए थे और उसके मुंह और सिर पर बारी-बारी शराब उंडेल रहे थे वे दोनों.और बच्चा पता नहीं कबसे उनके चंगुल में था..शराब मुंह मे न जा पाने के कारण बैचैन था..बार -बार खड़ा होता फ़िर वहीं सिट पर गिरता और वे दोनों हँसते ....अब भी याद आती है उसकी ,सोचती हूँ पता नहीं किसका बच्चा होगा वो........अब कहाँ होगा?...होगा भी या नहीं ?.....और होगा तो किस हाल में?....और मैं उस समय मूक क्यों बनी रही ???ये सवाल मुझे सोने नहीं देते .....हर साल वो याद आता है और मैं अपने -आपको कटघरे में पाती हूँ....काश मैं उसके लिए कुछ कर पाती ...

Friday, November 5, 2010

शुभ-दीपावली

हर नए दिन में एक नई आस हो ,हर आशीर्वाद का साया आपके साथ हो
कोई दुःख आपको छू न सके ,बस मुस्कुराहट ही मुस्कुराहट आपके पास हो ...
दीपावली की शुभकामनाए ..









Tuesday, November 2, 2010

हाड़ी रानी --रचना की आवाज में

आज सुनिए रचना की आवाज में मन्नाडे द्वारा फ़िल्म "नई उमर की नई फ़सल " के लिए गाई गई एक कविता जिसे हमने पहली बार सुना और देखा ज्ञान दर्पण  पर जिसे रतनसिंह शेखावत जी ने प्रस्तुत किया था। विस्तॄत रूप से कविता पढिये व विडियो देखिये ब्लॉग  ज्ञान दर्पण पर..




 हम सहॄदय आभारी है शेखावत जी के ---इस रचना से रूबरू करवाने के लिए..