सुबह उठते ही उंगलियों कि किट-किट..शुरू होती है तो देर रात तक चलती
है..
अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता.....मेरा यहाँ से निकल जाना ही बेहतर है
.....
सोच रही हूँ अभी............
देखूँ कितनी देर तक सोच पाती हूँ......................:-) :-)..
जाऊँगी नहीं पर .......ये तय है..............
हार नहीं मानने वाली मैं.....ऐसे ही ............... :-) :-)
रोज ही ऐसा सोच लेती हूँ........
13 comments:
मनस: वाचः कर्मणा?
सोचा, लिखा, और... और...
:)
is soch se ladaai chalti rahti hai...
रोज ही ऐसा सोच लेती हूँ........जितना मर्जी सोचो पर नहीं होगा !
हार नहीं मानना है, लक्ष्य नया ठानना है।
यह सोच ...बेहद असरकारक है ..आभार ।
मुझे पता है.. न तुम्हारे हाथ से ये की-बोर्ड छोटने वाला है और न माइक... मैं तो बस आशीर्वाद ही दे सकता हूँ कि तुम यूं ही मस्त नगमे लुटाती रहो!!!
यही ज़िंदगी है, फिर हार क्यूँ मानना..
सोच का सिलसिला बना रहना चाहिए।
आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-715:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
सोच जरुरी है...अच्छी रचना...
सादर...
ok, bye.
bhaut hi khubsurat....
apni-apni soch hai.. haar jaana jindagi nahi...
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