Thursday, October 11, 2012

पाती...


नाम जो लिख कर ले जाती हवा मेरी पतिया
जाकर पहुंचाती मेरा संदेस,तुमसे कहती बतिया
द्वार खोले अब भी हर पल तकती हूं राह
देखकर सूना घर निकलती हैं बस आह
नहीं भाती अब मुझे भोर के सूरज की लाली
बहुत बैचेनी से कटती है राते काली -काली
नदी की तरह बहती सी जिन्दगी है अब मेरी
जाने कब किस ओर मुड जाए ये धारा उफ़नती.............

-अर्चना

3 comments:

मन्टू कुमार said...

"नदी की तरह बहती सी जिन्दगी है अब मेरी
जाने कब किस ओर मुड जाए ये धारा उफ़नती.."

गहरे जज्बात यूँ शब्दों के सहारे...बहुत खूब |
सादर |

Ramakant Singh said...

शुभ प्रभात बहुत सुन्दर मनोभाव . नदी नाव संजोग

प्रवीण पाण्डेय said...

अहा, बहुत ही सुन्दर रचना..