Friday, November 2, 2012

घर से बाहर निकलो ...


तुम्हारा बाहर निकलना जरूरी है
इस घर के बाहर के लोगों के लिए
उन लोगों को देखने के लिए
जिनके पास घर नहीं है
न थकन मिटाने के लिए
न घर के बाहर खड़े हो कर पुकारने के लिए
सूरज का उजाला हमेशा उनके सर पर होता है
और वो भूले से भी नहीं लौट पाते अपने घर
एक बार ही सही..
उनसे मिलने के लिए
घर से बाहर निकलो.....
- अर्चना

8 comments:

संगीता पुरी said...

सही है ..
सुंदर प्रस्‍तुति

प्रवीण पाण्डेय said...

गहरी संवेदनायें उभारती प्रस्तुति..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

करवाचौथ की हार्दिक मंगलकामनाओं के साथ आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (03-11-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

बहुत खूबसूरत कविता है अर्चना.. बहुत ही गहरी संवेदनाएं.. जानती हो, पढते हुए जिनका ख्याल सबसे पहले आया वो हैं निदा फाज़ली साहब.. उनकी एक नज़्म के चंद टुकड़े, तुम्हारी नज़्म के लिए:
उठ के कपड़े बदल
घर से बाहर निकल
जो हुआ सो हुआ॥

जब तलक साँस है
भूख है प्यास है
ये ही इतिहास है
रख के कांधे पे हल
खेत की ओर चल
जो हुआ सो हुआ॥

Ramakant Singh said...

घर से बाहर की दुनियां बस कुछ ऐसी ही उलझने लेकर चलती है और मन कह उठता है
"घर से बाहर निकलो ..."

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

एकदम सही !
~सादर !

Dr ajay yadav said...

घर से बाहर निकलना बहुत जरुरी हैं |
बहुत सुंदर रचना ....
OCEAN is in a drop but d drop can not claim to be D Ocean ....
इसे आदमी की बदनसीबी कहो ,या कि उसकी सीमा ;
खुदा बन्दे में है , मगर वो खुदा नहीं हो सके ,कभी भी
खुदी को बुलंद कर सकता है , खुदा तक ,बेशक ;
समंदर कतरे में है , मगर , कतरा समंदर तो नहीं

Dr ajay yadav said...

घर से बाहर निकलना बहुत जरुरी हैं |
बहुत सुंदर रचना ....
OCEAN is in a drop but d drop can not claim to be D Ocean ....
इसे आदमी की बदनसीबी कहो ,या कि उसकी सीमा ;
खुदा बन्दे में है , मगर वो खुदा नहीं हो सके ,कभी भी
खुदी को बुलंद कर सकता है , खुदा तक ,बेशक ;
समंदर कतरे में है , मगर , कतरा समंदर तो नहीं