जैसे ही ठंड का मौसम आया
लगा खाने -खिलाने का मौसम आया
गाजर का हलवा और
पोहा-जलेबी तो खूब खाई
और मेथी का पराठा भी भाया
पर मूली कभी न भाई !
काकी की कचोरी की दूकान
ठंड ने खूब याद दिलवाई..
इस हफ़्ते ये कड़ाके की ठंड
सबके मुँह में पानी लाई ...
आते ही होंगे सारे साथी,
सहेलियाँ भी खाती-खाती
पर सब याद रखते हैं
मुझे मूली बिलकुल नहीं भाती...
चलो अब जल्दी ही
भीड़ बढ़ जाएगी
इतना खाएँगे-खिलाएँगे कि
पेट में जगह कम पड़ जाएगी ...
मूँग का हलवा और मुंगोड़े
अभी - अभी ही बनाए हैं
बोलो साथ खाने वालों -
आप क्या -क्या लेकर आए हैं?
खाने के साथ सबको
रबड़ी भी दी जाएगी
मगर सिर्फ़ उन्हें -
जिनको दूध-जलेबी नहीं भाएगी ..
सब कुछ मीठा-मीठा तो
अच्छा नहीं लगता
चलो साथ ही बना लेते हैं-
गरम-गरम कढ़ी और बेंगन का भरता...
मेरे खयाल से-
ये तो सबको चलेगा
लेकिन क्या कहेंगे गर किसी ने पूछा -
पीने को क्या मिलेगा?...
सोचती हूँ हम नसीब वाले हैं
जो इतने नाम जानते हैं
उनका क्या जो माँगकर भी
रोटी नहीं पाते हैं..
क्यूँ न हम उनकी
जीवन की नैया मोड़ दें
और उनके लिए रोज न सही
एक दिन का खाना छोड़ दें..
पेट पर कपड़ा कसकर
काम करते हैं वे सब
याद भी नहीं रखते पिछली बार
क्या खाया था और कब?
उनके लिये रोटी ही
हर मिठाई है
रबड़ी तो क्या, दूध माँगने पर भी
हमेशा माँ पानी ही लाई है..
क्या पसंद और क्या ना पसंद
ये तो कभी सोचा भी न होगा
कच्चे काँदे और मिर्च को ही
बढ़िया पकवान समझा होगा....
तन ढँकने को कपड़ा भी न मिलता होगा
तो क्या ओढ़ते होंगे कभी नर्म रजाई
ये कैसा ठंड का मौसम आया
कि उनकी जान पर बन आई....
7 comments:
वाह जी वहा! पहले खाने का सपना दिखाया ,उठाया और फिर धड़ाम से नीचे गिराया,दुनिया के रखवाले को भी सुनाया .....पर ठीक फ़रमाया :-))
शुभकामनायें!
शुरुआत किसी और मूड़ से और अंत तक आते आते मिजाज बदल दिया। पूरी पोस्ट पढ़ने के बाद अपने पुराने नेटमित्र दीप पाण्डेय की एक पोस्ट याद आ गई और उसका एक अंश -
http://vichaarshoonya.blogspot.in/2010/06/blog-post_26.html
"अम्मा कहती थी गर्मी गरीब आदमी का मौसम है. ना पहनने ओढ़ने की चिंता और ना पेट भरने की. पहनने के लिए कुछ भी नहीं तो चलेगा. कम खाओ और पानी से पेट भरो . जब खर्च करने के लिए कुछ ना हो तो गर्मी सबसे अच्छी"
यही विडंबना है संसार की. एक तरफ़ ऐशोआराम भरी जिंद्गी और दूसरी तरफ़ मुफ़लिसी. बहुत ही मार्मिक रचना.
रामराम.
स्वाद बढ़ाता, भूख बढ़ाता ठंड का मौसम।
बड़ा मुश्किल है समाज में सब एक सा कर पाना
शुरुआत में तो मुझे लग रहा था आप मुझे परेशान करने के पूरे मूड में हैं , इतने नाम देखकर ही मन ललचा गया | यहाँ मेस में कहाँ नसीब ऐसा खाना :(
लेकिन अंत होते होते दुष्यंत कुमार कि दो पंक्तियाँ याद आती हैं -
न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढँक लेंगे ,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए |
सादर
जीवन के दोनों पहलू को जिस तरीके से पिरोया है काबिले तारीफ़ और सोने पर सुहागा ओ दुनिया के रखवाले वाह क्या बात है।
Post a Comment