Monday, January 7, 2013

वादा है तुमसे मेरा....

बचपन में मेरी कोमलता ने 
ध्यान जब सबका खींचा
खिलने से पहले ही बरबस
लोगों ने हथेलियों में भींचा...

कुछ बड़ी होकर खिलने की
मेरी भी चाह थी
मेरे ऊपर खुला आकाश
और नीचे काँटों भरी राह थी..

तुमने मुझे तबाह किया
और फ़ेंक दिया यूँ ही खाली...

आउँगी फ़िर मैं बनकर कली
खिलूँगी इसी धरा पर
बिखेरूँगी अपनी सुगंध
हर तरफ़ गली-गली

और तब तक रहोगे तुम भी
रातें अपनी काटते काली
कह भी न पाओगे सर उठाकर
"मुझे तोड़ लेना वनमाली"....

-अर्चना


साथ ही लगा ये पॉडकास्ट यहाँ होना था तो एक बार फ़िर रश्मिप्रभा जी की अभिव्यक्ति --


15 comments:

देवेन्द्र पाण्डेय said...

आपकी भावपूर्ण अभिव्यक्ति के साथ ओजपूर्ण पॉडकास्ट सुनकर मन आनंद से भर गया।

Akash Mishra said...

पोस्ट बहुत ही सशक्त है , यथार्थ यही है |
पता नहीं क्यूँ मुझे लगता है कि स्त्रियों के खिलाफ ये हालत आज से नहीं है , ये सदियों की साजिश है | सतयुग में भी , उदाहरण लीजिए अहिल्या , त्रेता में सीता , द्वापर में द्रौपदी और कलयुग में तो लोगों ने गिनना ही बंद कर दिया |
अगर आपने 'सत्यमेव जयते' देखा होगा तो आपको याद होगा कि कैसे उसमे पति मतलब स्वामी और पत्नी मतलब दासी समझाया गया था , वहीँ एक शब्द पर जोर दिया गया था 'पितृसत्तात्मक सोच' , ये सोच आज भी बदस्तूर जारी है | यही उदाहारण लीजिए , जैसे स्त्री को कली के रूप में दर्शाया जाता है , ज़रा सोचिये कली का क्या हश्र होता है , उसके फूल बनने के बाद या पहले ही उसे तोड़ा फिर ईश्वर पर चढ़ाकर , माला में पिरोकर या किसी और तरह से उसकी सुगंध और ताजगी का भरपूर उपभोग किया , और जब वो सुगंधहीन होकर मुरझा गयी तो उसको यूँ ही यहीं कहीं फेंक दिया और चल दिए नयी कली की तलाश में | स्त्री कली नहीं है , स्त्री हवा में घुली हुई वो सुगंध है जिससे हम जीवन भर घिरे रहते हैं कभी माँ , कभी बहन , कभी दोस्त , कभी अर्धंगना |
'दुर्गा सप्तशती' के १३ अध्यायों में भी ये साफ़ दीखता है , पहले महिषासुर और फिर शुम्भ-निशुम्भ , जिसने भी स्त्री पर बुरी नजर डाली उसने दुर्गा-चंडी आदि रूप रख के उसका संहार ही किया है फिर हम क्यूँ स्त्री को सहन करना ही सिखाते हैं | एक और खास बात दुर्गा सप्तशती में ये भी साफ़ दिखाया गया है कि जब स्त्री पर किसी ने बुरी नजर डाली तो शिव,विष्णु,ब्रह्मा जैसे आदिदेव भी स्वयं शैलपुत्री-वैष्णवी-ब्रह्माणी आदि के रूप में देवी दुर्गा की तरफ से युद्ध में कूदे | जरूरत है हमें तो सोच बदलने की |

सादर

अशोक सलूजा said...

दिल से निकले ..दिल के ज़स्बात .....
शुभकामनायें!

Unknown said...

sundar rachna...
http://ehsaasmere.blogspot.in/

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

बहुत ही भावपूर्ण कविता और बिलकुल नए सन्दर्भ में एक अनूठे बिम्ब द्वारा संवेदनाओं को अभिव्यक्त किया है.
रश्मि दी की कविता का पाठ उनकी कविता के साथ न्याय तो करता ही है, तुम्हारी कविता के साथ घुल-मिलकर आज की परिस्थिति को सचाई से बयाँ करता है!!

Vinay said...

अति सुंदर कृति
---
नवीनतम प्रविष्टी: गुलाबी कोंपलें

ANULATA RAJ NAIR said...

सुन्दर ..
अति सुन्दर...

बधाई आपको अर्चना दी, और रश्मि दी को भी.
सादर
अनु

ओंकारनाथ मिश्र said...

सुन्दर भाव ...काश ऐसे लोगो इस पृथ्वी पर ना हों जो बिन खिले "फूल" तोडना चाहते हैं.

Anonymous said...

Hello. And Bye.

अजय कुमार said...

saarthak aur sundar

kavita verma said...

behad sundar abhivyakti..

प्रवीण पाण्डेय said...

मन की सशक्त अभिव्यक्ति..

वाणी गीत said...

एक आस , विश्वास हर जुर्म पर भारी !

संजय भास्‍कर said...

अति सुन्दर

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...



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♥सादर वंदे मातरम् !♥
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आउँगी फ़िर मैं बनकर कली
खिलूँगी इसी धरा पर
बिखेरूँगी अपनी सुगंध
हर तरफ़ गली-गली

द्रवित कर देने वाली , बहुत मर्मस्पर्शी भावाभिव्यक्ति !
आदरणीया अर्चना जी
साधुवाद !


हार्दिक मंगलकामनाएं …
लोहड़ी एवं मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर !

राजेन्द्र स्वर्णकार
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