Thursday, August 4, 2016

ऋणी हूँ तुम्हारी मैं



जब भी सावन आता है मुझे उसकी याद आती है। ...

बात सन १९९३ जुलाई की है , मेरे पति सुनील के गंभीर एक्सीडेंट की खबर मुझे मिली , वे ऑफिस के कार्य से शिलॉन्ग गए हुए थे ,और मैं बच्चों के साथ रांची में थी। ... एक्सीडेंट के बाद उन्हें गौहाटी न्यूरोलॉजिकल रिसर्च सेंटर में लाया गया था
जब आनन-फानन में मुझे  बच्चों को छोड़ गौहाटी पहुंचाया गया तब मेरे साथ परिवार से सिर्फ एक चचेरे जेठ जी थे वे भी इसलिए कि मेरे पति की ही कंपनी में उच्च पद पर धनबाद में कार्यरत थे व सबसे जल्दी पहुँच सकते थे। ..
पहली बार हवाई जहाज की यात्रा इस तरह करूँगी ,कभी सोचा न था। .:-(
खैर ! ..जब हम गौहाटी पहुंचे तो वहाँ एयरपोर्ट से पहले कंपनी के गेस्ट हाउस में जाना तय हुआ , सामान रखवा कर अस्पताल के लिए जाने लगे तो मुझे एक कार में बैठाकर बताया गया की ये कर आपके ही साथ रहेगी इसकी ड्यूटी चावजी के लिए ही रहेगी आपको लाना-ले जाना या दवाई /ब्लड जिसके लिए भी जरूरत पड़ेगी ये ड्राइवर साथ रहेगा। .. नाम है विजय यादव। ..   यहीं का लोकल है इसे सारे रास्ते पता है। ..

मेरी माँ और भाई ४-५ दिन बाद पहुंचे थे ।

सुनील कोमा में थे और एक महीने पूर्ण कोमा में रहे, अगले एक महीने अनकॉन्शस कह सकते हैं। ..   हम वैसे ही वहाँ से लौटे और करीब साढ़े तीन साल जीवित रहे वे उसी अवस्था में । ...

... और आज मैं विजय को ही याद कर रही हूँ  --- एक अनजान लड़का

एक १९-२० साल का दुबला-पतला बिहारी लड़का  ... दिन-रात मेरे और मेरे परिवार के साथ लगा रहा। ..

हॉस्पिटल ,गेस्ट हाउस से करीब ७ किलोमीटर दूर था। .. हॉस्पिटल में रिसेप्शन काउंटर पर ही  बैठे रहना
पड़ता था क्यों कि आई सी यू में जाना  मना था।  खाने के नाम पर एक गुमटी थी बाहर जहां चाय-बिस्किट मिल जाते थे लेकिन बाद में पता चला कि उसे भी भाई ने एडवांस पैसे दिए थे तभी वो बिस्किट रख पाता था। ... वो भी बहुत गरीब था , हमारा एहसान मानता रहा अंत तक। ....

विजय दिन भर ब्लड लेने या दवाई लाने दौड़ता रहता मेरे परिजन के साथ.

..मैं   देर रात वापस लौटती करीब १२ या १ भी बज जाते। .. फिर सुबह ४ बजे तैयार हो जाती। ... नींद ही कहाँ थी तब आँखों में। .. :-(
बस भगवान की प्रार्थना का ही आसरा था। .  किसी ने बताया गौहाटी में शुक्राचार्य जी का स्थापना किया हुआ ब्रह्मपुत्र के किनारे शुक्रेश्वर महादेव का मंदिर है वहाँ म्रत्युंजय मंत्र का जाप करो ,किसी ने बताया कामाख्या मंदिर में ज्योत जलाओ। .... सब प्रयत्न किये। .और विजय मुझे हर जगह लेकर गया। .कोई मंदिर ,दरगाह न बची होगी उन दो महीनों में। . ... वो कहता दीदी चलो वहाँ चादर भी चढ़ाते हैं। .... वहाँ बहुत से शिवलिंग हैं ,जल चढ़ाएंगे। ... सब ठीक हो जाएगा। ..

तब श्रावण माह चल रहा था ,एक दिन उसने छुट्टी ली। ... हमें लगा उसको थकान हो गई होगी। ... लेकिन अगली सुबह वो जल और प्रसाद लेकर आया हॉस्पिटल में। ..बहुत पूछने पर बोला कर सारी रात कांवड़ लेकर बारिश में चला है , वहाँ कहीं पहाड़ी पर शिवलिंग पर ब्रह्मपुत्र का जल चढ़ाते हैं। ...
मेरे और मेरे परिवार के पास उसका ऋण चुकाने को कुछ शेष नहीं है। ..बस उसकी याद के सिवा। ...

मेरी माँ को हम मामी कहते हैं ,वो भी मामी कहने लगा और भाई को मुन्ना भाई। .... सुबह मेरे बाहर आने से पहले कार लेकर खड़ा रहता और रात मुझे गेस्ट हाउस छोड़कर ही घर जाता। ... फिर घर जाकर खुद खाना बनाकर खाता। .. कितनी  भी कोशिश कर लो वह अपनी ड्यूटी नहीं छोड़ता। .... खाना भी नहीं खाता कहीं और।

उसकी कार किराए पर ली थी कंपनी ने। ...और वो कार मालिक के यहां ड्राइवरी करता था। ....

एक महीने से ज्यादा ऐसे ही चलता रहा। ..उसका मालिक चाहता था कि  वो आराम नहीं कर पाता इसलिए उसकी जगह किसी और ड्राइवर को भेज देगा लेकिन वो नहीं मानता। ....

अपने बारे में उसने बताया था कि वो जब चौथी कक्षा में था, घर से भाग आया था ट्रेन में बैठकर , क्यों कि मास्टरजी मारते थे। . .. यहां पहुँच गया। ... ऐसे ही कुछ-कुछ काम करते-करते चार-पांच सालों से मालिक के पास टैक्सी चलाता है। ..उल्का वालों (नाम अब याद नहीं) के लिए भी जाना पड़ता है कभी-कभी। .... मुझे आप लोग मेरे घर के लगते हैं। ... बस! इसलिए कहीं जाना नहीं चाहता। ....  एक महीने से भी ज्यादा वो हमारे साथ रहा। ...

लेकिन आखिर उसे मालिक ने सख्ती करके गौहाटी से बाहर भेज ही दिया। .. जब दो महीने बाद हमें वहाँ से शिफ्ट होना था उसे कहीं से खबर लगी। ..उससे एक दिन पहले  मैं और मेरा भाई हॉस्पिटल के बरामदे में व्हील चेअर पर सुनील को बैठाये घुमाने की कोशिश कर रहे थे उसने पीछे  से आकर मेरे हाथ से व्हील चेअर पकड़ ली। ..... अरे तुम ! कहते हुए हम आश्चर्य से उसे देख रहे थे बोला- शिलॉन्ग से चार दिन की ट्रिप लेकर लौट रहा था। .. मेन  रोड पर टैक्सी खड़ी कर दी है। ..साहब  को आधे घंटे में लौटता हूँ कहकर आया हूँ मिलने। ये नहीं बताया कि यहां आया हूँ ....

आप लोग चले जाएंगे। ..... अच्छा नहीं लगेगा। ..जीजाजी भी ठीक नहीं हुए :-( कहते हुए उसकी आँखों में आंसू आ गए थे और मेरी भी। ...

फिर कभी मिलना नहीं होगा। .... मुन्ना भाई को मेरा घर देखने ले जाऊंगा। .... मुन्ना गया उसके साथ। ... माँ ने उसके लिए शर्ट -पेंट का कपड़ा खरीदवाया था,उसे देने को, लेकिन उससे पहले ही उसके मालिक ने उसे हटा दिया था  मेरी कंपनी की ड्यूटी से। .. मुन्ना कपडे भी लेकर गया उसके। ... उसे दिए ,उसके घर जाकर। ...

और आखरी दिन जब हम बम्बई/बॉम्बे .. अब मुम्बई जसलोक में शिफ्ट हो रहे थे ,वो विदा करने नहीं आया। ...

पता भी लिखवाया था बिहार अपने गाँव का। ..अभी वो डायरी भी नहीं मिल रही मुझे, न याद आ रहा है उसके गाँव का नाम  ...

कहा था उसने किसी दिन ट्रक लेकर आपके इधर से निकलूंगा तो आपसे जरूर मिलूंगा। ..मगर वो दिन अब तक नहीं आया। ..
हम लोग गौहाटी के बाद १९९३ से १९९५ तक समय के चक्र में ऐसे फंसे थे की पलट कर देखने का समय ही नहीं मिला। ...इस बीच एक बार उसकी चिट्ठी भी आई थी हाल-चाल पूछे और बताये थे। ....

हमने कभी उसे खोजने की कोशिश नहीं की। ..जाने कहाँ होगा अब ... आस है कि  कभी मिले। ...

विजय जहां हो खुश और अपने परिवार के साथ सुखी हो। ... 

9 comments:

संध्या शर्मा said...

कुछ ऋण जीवन भर के लिए साथ रह जाते हैं, जिन्हें चुकाना हमारे बस में नहीं होता। आपकी हिम्मत और सहनशीलता को नमन ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

संवेदनशील संस्मरण।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-08-2016) को "हरियाली तीज की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक-2426) पर भी होगी।
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हरियाली तीज की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Kailash Sharma said...

कुछ व्यक्ति अपने प्रेम और सेवा से जीवन में गहरी छाप छोड़ जाते हैं...नमन है ऐसे लोगों को...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अर्चना... आज बस सिर झुकाकर जा रहा हूँ!

Asha Lata Saxena said...

गहन विचारों को लिपिबद्ध किया है आपने |विजय जैसे लोग कम ही मिलते हैं ईश्वर उसे सुखी रखे वह जहां भी हो |


प्रतिभा सक्सेना said...

जन्म-जन्मान्तर के संस्कार व्यक्ति के साथ रह कर किसी न किसी रूप में प्रतिफलित होते हैं. सही संबंध आड़े समय में सहारा बन जाता है ,कभी अचानक कोई काम साधने को प्रकट हो जाता है.कितना संवेदनपूर्ण और निस्पृह रहा होगा आपका वह सहायक - सोच कर मन भर आता है .

Nikhil Jain said...

कुछ अंजान व्यक्तियों के साथ भी परिवार जैसे ही गहरे संबध बन जाते है, शायद कोई पिछले जन्मों का गहरा मित्र या रिश्तेदार हो।

संजय भास्‍कर said...

सहनशीलता को नमन...

Shashi said...

When I read your story I always feel sad but get inspiration to find your blog and know you. God bless you and Your family !