Monday, February 28, 2011

आओ ...बस दो पल....साथ बैठें...

चलो कुछ ऐसा याद करें कि- दिल खुश हो जाए
बीती हुई कोई बात करें कि- दिल खुश हो जाए
जब हम छोटे थे तो मस्ती और खुशी
हमारे ही साथ रहते थे
मुस्कान और हँसी के झरने
हमारे आसपास ही बहते थे
दु:खों का तो कोई नाम न था
हमको भी उनसे कोई काम न था
चलो कुछ ऐसा याद करें कि-खुशियाँ कम न हो 
दो पल बैठ बीती बात करें-जिसमें कोई गम न हो....

Saturday, February 26, 2011

FAREWELL...



 ये कविता उन बच्चों के लिए जो इस वर्ष १२वीं की परिक्षा दे रहे है .....सभी को मेरी ओर से --ALL THE BEST...

Saturday, February 19, 2011

विकासकार्य---की गति,लय और ताल....




 इन्दौर में विकास कार्य सुचारू रूप से चलता दिख रहा है,जगह-जगह सड़के खोद दी गई है ताकि लोगों को दिन-रात चर्चा करने के विषय मिलते रहें काम की बातों के बारे में कोई कुछ न सोच पाए।जिससे बेरोजगारी की समस्या काफ़ी हद तक हल  हो सकती है ।

सड़कों को जिस गति से लम्बाई के बजाय चौड़ाई में बढ़ाया जा रहा है--देखने योग्य है ।कहीं सड़कों के दोनों किनारों पर गड्ढे हैं तो कहीं गड्ढों के किनारे से गुजरने वाली सड़कों का सौन्दर्य देखते ही बनता है
आवागमन सुचारू व नियोजित  रूप से चलाने की जिम्मेदारी स्वयं वाहन चालकों को सौंप दी गई है इस सम्बन्ध में उनका स्वनिर्णय ही उन्हे अन्तिम छोर पर अपनी मंजिल तक पहुँचाने में सहयक सिद्ध हो रहा है ।

सुबह-सुबह राजीव गाँधी प्रतिमा से शिवाजी वाटिका तक का सफ़र काफ़ी रोमान्चक होता है। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए  व राजस्व बढ़ाने के लिए  ऐसे नजारे शायद कहीं और देखने को न मिलेंगे।
कुछ अंदाजन व स्वसूत्रों से जानकारी मिली है कि सड़कों के किनारों पर पार्किंग की व्यवस्था आम नागरिक को उपलब्ध करवाई गई है ,जिससे कि ट्रक,बस,टेंकर मालिकों में खुशी की लहर दौड़ी होगी।

कुछ विशेष जगह जो देखने योग्य बन पड़ी है---
१-दीनदयाल उपवन के सामने ----सुबह आठ से साढ़े नौ बजे तक----जहाँ सब्जी वाले एक के पास एक ठेला कतारबद्ध रूप से रोककर सब्जियों को (पानी की टंकी के सामने)स्वास्थ्य कारणों से बेचने से पहले धोते हैं। साथ ही स्वल्पाहार का आनंद भी लेते हैं।



२-अग्रसेन चौराहे के पास सब्जीमंडी वाले मोड़ पर----  सुबह आठ से साढ़े नौ बजे तक----जहाँ आपको दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर मिलेंगे जिन्हें आप बेधड़क होकर मोलभाव करके सड़क के बीचों-बीच अपनी गाड़ी पर /में बैठे-बैठे ही खरीद सकते हैं।




३-नौलखा चौराहा-------समय दिन भर कभी भी -----जहाँ चौराहे का भरपूर उपयोग किस तरह किया जाता है ...किस ओर से किस ओर जाया जा सकता है,मोड़ शुरू होने के पहले व बाद में कहाँ तक खड़े रह सकते हैं,लाल बत्ती होने पर भी सभी गाड़ियों को पीछे छोड़ते हुए आगे कैसे जाया जा सकता है ----आप सीख सकते हैं।

और भी कई जगहें हैं ---देखने योग्य सड़कों में होते गढ्ढे और फ़िर गढ्ढों पर बनती सड़कें देखना हो तो -------बस  कोई भी एक रोड़ पर सीधे चलना शुरू कर दिजीये...............
वैसे इस विकास कार्य  में योगदान देने के लिये ओघे,ईय,अन,अर्मा,अंकी,जैसे लोग ---ऎ..................ता  खेलते हैं (जैसे छोटे बच्चों के साथ छुपाछुपी का पहला खेल खेलते हैं)(शाहिद-करीना की फ़िल्म देखकर "फ़" के बदले "अ" की आदत हो गई है आप लोग समझ ही गए होंगे)........

Wednesday, February 9, 2011

स्वप्न झरे.....गोपालदास "नीरज"जी का गीत ...

स्वप्न झरे फ़ूल से -----नीरज
स्वर- अर्चना चावजी





स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

Saturday, February 5, 2011

मै और मुन्ना....अब भी छोटे है....

                                      मै और देवेन्द्र (मेरा भाई-जिसके गीत आप सुनते है।)
बेचारे बच्चे.....पर क्या करें हम अपना बचपन नहीं भूलते ....बस जब भी मिलते है---- बच्चे बन जाते है....