(चित्र--वत्सल -पल्लवी की पहली होली का-१९८९)
एक ऐसी होली जिसे मैं कभी याद करना नहीं चाहती...और जो मेरे भुलाए नहीं भूलती...।
बात उन दिनोंकी है जब मेरा समय घर से ज्यादा अस्पताल में गुजरा करता था। त्यौहार कब आते ,कब मनकर चले जाते, पता ही नहीं चल पाता था।
१९९४ की होली थी वो....सुनिल के एक्सीडेंट के बाद की पहली होली थी वो.....डॉक्टरों के जबाब दे देने के बाद घर लेकर आ गए थे हम उन्हें...पूरा परिवार इस घटना से उबरने की कोशिश में लगा हुआ था....उस दिन रंग नहीं ला पाए थे हम बच्चों के लिए या कहूँ याद ही नहीं रहा था कुछ....शाम को डॉक्टर से मिलकर जब लौटी मैं तो बच्चे कहीं दिखाई नही दे रहे थे। मैने आवाज लगाई तो बेटी जिसकी उम्र साढ़े पाँच साल थी ...दौड़ती हुई आई...भीगी हुई थी पूरी....और चेहरा,हाथ,कपड़े सब रंगीन थे...समझ नहीं पा रही थी- हुआ क्या है?
पूछा--- ये क्या किया?
बोली--भैया ने किया।
कहाँ है भैया? ---अन्दर ले गई, बाथरूम में ...
माँ भी आते हुए बोली -यहीं खेल रहे थे दोनों अभी....
और जो हम दोनों ने देखा ----वत्सल भी भीगा हुआ था टब,बाल्टी,मग जिसमें भी पानी था---सारा रंगीन.....
एक दिन पहले ही लाए हुए सारे स्कैच पेन टूटे, और खुले हुए--- बिखरे पड़े थे चारों ओर.....और भोले पन से बोला था---रंग लगाना था न.....आपको और पापा को भी लगाना है....... और मामा को ....नानी को भी .....तो सब का बना लिया.....रानू के पेकेट का भी ..............
एक ऐसी होली जिसे मैं कभी याद करना नहीं चाहती...और जो मेरे भुलाए नहीं भूलती...।
बात उन दिनोंकी है जब मेरा समय घर से ज्यादा अस्पताल में गुजरा करता था। त्यौहार कब आते ,कब मनकर चले जाते, पता ही नहीं चल पाता था।
१९९४ की होली थी वो....सुनिल के एक्सीडेंट के बाद की पहली होली थी वो.....डॉक्टरों के जबाब दे देने के बाद घर लेकर आ गए थे हम उन्हें...पूरा परिवार इस घटना से उबरने की कोशिश में लगा हुआ था....उस दिन रंग नहीं ला पाए थे हम बच्चों के लिए या कहूँ याद ही नहीं रहा था कुछ....शाम को डॉक्टर से मिलकर जब लौटी मैं तो बच्चे कहीं दिखाई नही दे रहे थे। मैने आवाज लगाई तो बेटी जिसकी उम्र साढ़े पाँच साल थी ...दौड़ती हुई आई...भीगी हुई थी पूरी....और चेहरा,हाथ,कपड़े सब रंगीन थे...समझ नहीं पा रही थी- हुआ क्या है?
पूछा--- ये क्या किया?
बोली--भैया ने किया।
कहाँ है भैया? ---अन्दर ले गई, बाथरूम में ...
माँ भी आते हुए बोली -यहीं खेल रहे थे दोनों अभी....
और जो हम दोनों ने देखा ----वत्सल भी भीगा हुआ था टब,बाल्टी,मग जिसमें भी पानी था---सारा रंगीन.....
एक दिन पहले ही लाए हुए सारे स्कैच पेन टूटे, और खुले हुए--- बिखरे पड़े थे चारों ओर.....और भोले पन से बोला था---रंग लगाना था न.....आपको और पापा को भी लगाना है....... और मामा को ....नानी को भी .....तो सब का बना लिया.....रानू के पेकेट का भी ..............
13 comments:
बच्चो को क्या पता.. वो तो सच मे मन के सचे होते हे
दुःख हो या सुख बच्चों को इससे क्या मतलब?
उन्हें तो निश्छल होली खेलने में आनन्द आता है!
आनंद आ गया ...बच्चों की न भुलाई जाने वाली शरारतें ...शुभकामनायें आपको !
बच्चे तो दुःख सुख से अनजान होते हैं..शुभकामनायें
बच्चे मन के सच्चे।
sukh dukh se anjaan ye bachche
jo hain dil ke sachche..:)
बच्चे तो मन के सच्चे होते हैं| धन्यवाद|
बच्चों का क्या है आख़िर बच्चे तो बच्चे ही होते हैं
एक यादगार चित्र! बच्चे वाकई ईश्वर का प्रतिरूप होते हैं।
बच्चों के भोले पन और आपकी दृढ़ता को सलाम
बच्चे तो बच्चे ही होते हैं...
बचपन सुख दुःख से अनजान !
भीगा सा लगा मन !
बच्चों का यही भोलापन ही तो गम्भीर से लगते पलों को भी कुछ सहज कर देता है .....
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