Sunday, October 19, 2014

कार्तिक की एक सुबह

23-
- आज जाना नहीं है?
-नहीं ..
-क्यों ?
- मन नहीं है ...
-हम्म!... पर मुझे तो जाना है न!,
-जानता हूँ... तुम्हारा जाना जरूरी है ...
-फिर ?...जाओ ..तुम...
-सुनो ...
-क्या ?
-तुम्हारे आने तक यहीं रूक नहीं सकता ?
-मगर क्यों ?
-तपना है मुझे भी ..... तुम्हारी तरह ,
झुलसना है धूप से ...तुम्हारी तरह ...
इस सूरज के आगे अड़े रहना चाहता हूँ
तुम्हारे लौटने तक खड़े रहना चाहता हूँ ......
- जाओ भी !!! ...सुबह होने को आई है ....
- ह्म्म! जाता हूँ ,जाता हूँ ...पर एक बार ...
- ह ह ह ह ....... :-)

अनवरत प्रवाहमान कहानी का एक टुकड़ा
-अर्चना

1 comment:

अनूप शुक्ल said...

कहानी किधर गयी!