न गज़ल के बारे में कुछ पता है मुझे, न ही किसी कविता के, और न किसी कहानी या लेख को मै जानती, बस जब भी और जो भी दिल मे आता है, लिख देती हूँ "मेरे मन की"
Tuesday, February 23, 2016
Sunday, February 7, 2016
बेबसी
बहुत फर्क हो गया दिनचर्या में
पर कोई फर्क नहीं पड़ा
उस दिन की
और आज की उदासी में
टूटा,गिरा,बिखरा,
दूर तक छिटक गया
दिल जो कांच का था
पत्थर का हो गया
चुभती है फांस-सी
कोई किरचन ,
बहता है लहू,,रिसता है घाव
बढ़ती है फिसलन
गिरने से बचने की कोशिश में
टकरा जाती हूँ
खाली पड़ी कुर्सी से
छलक जाती है चाय
यादें दस्तक देती है
उड़ जाता है अखबार
सोचती हूँ,चिढ़ती हूँ-
ये दिन क्यूँ निकल आता है यार!
-अर्चना
पर कोई फर्क नहीं पड़ा
उस दिन की
और आज की उदासी में
टूटा,गिरा,बिखरा,
दूर तक छिटक गया
दिल जो कांच का था
पत्थर का हो गया
चुभती है फांस-सी
कोई किरचन ,
बहता है लहू,,रिसता है घाव
बढ़ती है फिसलन
गिरने से बचने की कोशिश में
टकरा जाती हूँ
खाली पड़ी कुर्सी से
छलक जाती है चाय
यादें दस्तक देती है
उड़ जाता है अखबार
सोचती हूँ,चिढ़ती हूँ-
ये दिन क्यूँ निकल आता है यार!
-अर्चना
Tuesday, February 2, 2016
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
5जनवरी २०१६ को स्कूल को अन्तत: विदा कर दिया ...वास्तव में इस सत्र के शुरू से ही घर में चर्चा चालू थी कि अब और काम न करो बेटे वत्सल को भी लगने लगा था कि अब तक हमने साथ समय ही नहीं बिताया ..मतलब वैसा समय जैसा बिताना चाहिए था .....
सात साल बहुत कम उम्र होती है बच्चे के बड़े हो जाने की ... और वो इतना शरारती था कि आज भी सब उसका बचपन याद करते हैं और जब भी मुझे कोई मिलता है यही पूछता रहा कि अब भी वैसा ही है या शान्त हो गया ....
उसका जन्म व्यतिपात में हुआ , ग्रह ,नक्षत्र तो कुछ समझती नहीं मैं लेकिन जन्म के समय शान्ति पूजा करवाई थी मां के यहाँ ....
जब छोटा था तो कभी गरम ओवन पर हाथ रख दिया तो कभी तेल का १५ लीटर का तेल उंडेल दिया , कभी पल्लवी के ऊपर कंबल डालकर उसकी कुटाई कर दी तो कभी स्केच पेन को पानी में घोल कर होली के रंग बना लिए ....
लेकिन उसकी समझदारी वाली बातों पर कम ही नज़र पड़ी मेरी ....
सुनिल के एक्सीडेन्ट के समय करीब चार महीने तक बच्चों की स्कूल छूट गई थी, तब बहुत समय अस्पताल में बीतता दोनों बच्चों का ... लगभग पूरा दिन.....
एक दिन मैंने उसे छोटी बहन पल्लवी को कहते सुना कि -पता है अब शायद हम स्कूल नहीं जा पाएंगे , क्योंकि पापा की दवाई में बहुत बार मम्मी पैसे देती है .....रोज-रोज ....
और उसके दूसरे ही दिन मैंने नागपूर में मार्डन स्कूल के प्रिंसिपल साहब जोशी जी से मिलकर बच्चों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया ,बिना किसी देरी के .....
याद आ रहा है रिक्शे वाले भैया का ये कहना कि- दीदी ये रिक्शे से उतर जाता है पीछे-पीछे दौड़ता है .... और पल्लवी का उसके बचाव में ये कहना कि- मम्मी भैया चढ़ाई पर ही उतरता है .......
अब तो बहुत बड़ा हो गया है ..:-)
अब वाकई लगने लगा कि हम साथ नहीं रहे ..समय नें हमें बतियाने का मौका ही नहीं दिया ....
तो अबकि अपनी दुनिया में लौट जाने का मन हो आया है .....
उससे उसके बचपन के किस्से कहने हैं .....
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