Friday, November 18, 2016

गाँव छोड़ शहर मे गरीब

शहर में बैठकर 
गाँव के हालात पर तरस खाता हूँ 
जब फसल लहलहाती है 
तो जाकर कटवा लाता हूँ 

माँ- बाबूजी का क्या है,
रहे,रहे न रहे  
किसी भी दिन निकल पड़े 
कोरे कागजों पर ही
अँगूठा लगवा लाता हूँ 

जब बनाते हैं
मालिक के बच्चे 
अपने प्रोजेक्ट
उनके स्कूलों में 
उसी बहाने
याद कर लेता हूँ 
समय-समय पर 
मक्के और बाजरे के भुट्टे ,
आम कच्चे ,
खेत की पगडंडी ,
कुँए  की मुंडेर ,
घरों के बाहर -उपलों के ढेर 

अब तो एक टी.वी. भी लगवा आया हूँ बैठक में 
माँ -बाबूजी से चलफिर हो नहीं पाती 
अपनी जमीन है वहाँ 
घर पर भी कोई चाहिए 
उनके खर्चे-पानी भी निकल जाते हैं 
मालिक भी साल में पिकनिक मना आते हैं 
,
देश में सुधार की बहुत जरूरत है 
अपन करें भी तो क्या?
सरकार भी कुछ करती नहीं 
क्या कहा- पढों ? ? ?,अरे यार!
पढने-लिखने के चक्कर में कौन माथा खपाए 
अपने को तो ऐसा चाहिए कि-
काम भी न करें ,और पैसे कमाएं 


भले किसी काले धन वाले के गुलाम बन जाएं। .. 

3 comments:

praveen shukla said...

tanj hai

Onkar said...

सुन्दर व्यंग्यात्मक कविता

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

एक्सेलेंट मई सिस! आज फिर यही कहने को जी चाह रहा है कि मेरा प्रणाम तुम्हें!