Wednesday, November 30, 2011

मुझसे नहीं होगा....


सुबह उठते ही उंगलियों कि किट-किट..शुरू होती है तो देर रात तक चलती है..
अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता.....मेरा यहाँ से निकल जाना ही बेहतर है .....
सोच रही हूँ अभी............

देखूँ कितनी देर तक सोच पाती हूँ......................:-) :-)..

जाऊँगी नहीं पर .......ये तय है..............
हार नहीं मानने वाली मैं.....ऐसे ही ............... :-) :-)
 
रोज ही ऐसा सोच लेती हूँ........

Tuesday, November 29, 2011

बिना कहे....





 




   


(सभी गीत यू-ट्यूब से साभार..)

Saturday, November 26, 2011

फ़ल और परिवार ...

आज कहीं पढ़ी एक बात याद आ रही है ...फ़लों को लेकर उदाहरण था, तुलना की गई थी परिवार की फ़लों की बनावट के साथ...ठीक से तो याद नहीं शायद पर कुछ नोट कर लिया था वही लिख रही हूँ ..
(शायद आपमें से कई लोगों ने भी पढ़ा हो, जिसे पता हो वे कॄपया "ओरिजनल" की जानकारी देवें)


पारिवारिक संगठन
सेवफ़ल -- एक सुगठित फ़ल, अन्दर की बात बाहर आ जाये तो बदरंग ....

मौसम्बी -- एक विभाजित फ़ल, पर आपसी जुड़ाव बहुत ..

संतरा -- एक विभाजित फ़ल, पर ढीला ..

अंगूर -- सब अलग , कोई फ़र्क नहीं दिखने और स्वाद में एक से..

जामुन -- अलग -अलग पर रंग ऐसा जैसे जलते हों एक-दूसरे से..

बेर -- अलग-अलग और दूर-दूर काँटों से घिरे ..एक को छूने जाओ तो दूसरा काँटा चुभता है ...

और अन्त में ....

सीताफ़ल -- बाहर से भी अलग ,अन्दर से भी अलग पर जुड़ाव -- एक को छेड़ने पर सब बिखरते हैं ..मानसिक और शारिरिक रूप से स्वस्थ..अन्दर से भी बाहर से भी ......

अब आप तय कीजिए .....किस तरह का हो पारिवारिक संगठन ...



Tuesday, November 15, 2011

स्नेह का रिश्ता..

अपनों से घिरे रहने की चाह ने मजबूर कर दिया था मुझे फ़ेसबुक पर अपना ग्रुप बनाने के लिए --स्कूल के पुराने बच्चों का एक ग्रुप बना लिया था मैनें..
एक दिन ऐसे ही चेक किया तो आठ-दस बच्चे ऑनलाईन थे,(आजकल जरूरत हो गई है ऑनलाईन रहना :-) )

मैनें सहज ही चेट बॉक्स में लिखा -"स्नेहाशीष"

तुरंत कई बच्चोंने रिप्लाय दिया---- किसी ने "नमस्ते",किसी ने "हेलो", तो कोई "हाय" पर भी आ गया था ।
अचानक मेसेज मिला अंकित का-- "चरण वंदना" , मुझे आप ज्यादा आशीष दें, क्योंकि जिस पर ज्यादा गुस्सा करते हैं उसी से ज्यादा प्यार भी करते हैं।
मैंने जबाब दिया-- मैनें सबको समान दिया है ,कोई भेदभाव नहीं।
बाकि बच्चों के भी उत्तर आने लगे --कोई कह रहा था मैं ज्यादा पुराना स्टूडेंट हूँ,इसलिए मुझे.....
कोई---आप मेरी टीचर नहीं "Mom" हो इसलिए मुझे .....वगैरह..वगैरह...

मैं सबको सिर्फ़ पढ़ रही थी ।
 अंकित का जबाब आया ---आपने दस साल पहले मुझे एक चाँटा मारा था,सारे दोस्तों के सामने ,वो आज भी याद है मुझे ..इसलिए मुझे ...

बहुत आश्चर्य हुआ मुझे इस बात का..मैं भी भूल नहीं पाई थी , न वो भूला था।
मैने कहा- अगर यहाँ लिख सको किस बात का तो....."नहींईईई ...बहुत गंदी बात थी वो.....नहीं लिख सकता ...
......और मुझे याद आ रहा था वो अंकित, जिसे उसके पापा और चाचा गाँव से शहर .बेहतर पढ़ाई की सुविधा के लिए होस्टल में लेकर आए थे,तब ५वीं-छठी में रहा होगा वो...

..होस्टल में आए आठ दिन हो चुके थे ,उसका मन नहीं लग रहा था, घर की याद सता रही थी, पेटदर्द का बहाना बनाया था उसने..और रो-रोकर बुरा हाल कर लिया था।
उसके पापा और चाचा को बुलाया गया था उससे मिलने,और उसने जिद्द पकड़ली कि वो यहाँ नहीं पढ़ेगा..किसान पिता समझाते रहे कि -"तुझे बड़ा आदमी बनना है",गाँव में कुछ नहीं है ,खेती में कुछ नहीं मिलेगा।..

एक ही बेटा था वो- तीन भाईयों के परिवार का...बहुत कड़ा मन करके दादा-दादी ने भेजा था उसे शहर ....

इसी बीच अंकित का  अगला मेसेज था ---

--" आप अब भी उसी स्कूल में काम कर रही हैं?? छोड़ दिजिए अब .....मैं कमाने लगा हूँ , मेरे साथ रहियेगा...."

Sunday, November 13, 2011

श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श.....साहब स्कूल जा रहे हैं......

                              













                                                           
























और स्कूल पहुँच कर .....चल पड़े काम पर ..

तो करो सब -- सलाम साब .......और दिजीए बाल-दिवस पर शुभकामनाएँ...




चाहें तो यहाँ भी घूम सकते हैं-- बाल मेले में .....
१- http://archanachaoji.blogspot.com/2010/02/blog-post_26.html 
   २-- http://archanachaoji.blogspot.com/2010/07/happy-birth-day-vaidehee-sumi.html
   ३--http://archanachaoji.blogspot.com/2010/11/blog-post_14.html

Saturday, November 12, 2011

माय लाईफ़ स्टोरी ...पर मेरी नहीं ..

"मेरी जीवन गाथा" भाग ४
...अचानक मेरी नजरें अपनी बहन पर से हटकर उस व्यक्ति पर टिक गई जो मेरी बहन के पीछे-पीछे ही,
उसी कमरे से बाहर आ रहा था ।वह बहुत लम्बा,सांवला और मेरी नजरों मे आकर्षक युवक था ।उसने सूट पहन रखा था और टाई भी लगा रखी थी। मैं अपने -आपको उस व्यक्ति के आकर्षक व्यक्तित्व को निहारने से नहीं रोक पाई,तभी अचानक मेरी बहन ने मुझे आस्तीन खींचकर झंझोड दिया, और मैं उसके पीछे कॉलेज केंटीन की ओर चल पडी ।
.............उसे हमारे पीछे केंटीन में आता देख पता नहीं क्यूं मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा था, और जब मैं अपनी बहन के साथ लंच कर रही थी, तब सबकी नजरें बचाकर मैं उसे बार-बार देख रही थी । लंच के बाद मैं  जल्दी से एक सेंडविच हाथों मे पकड़कर बेग में लगभग ढूंसते हुए तेजी से केंटीन से बाहर निकली। मुझे पहले ही देर हो चुकी थी,जब मैं सिनेमा हॉल पहुंची--मेरे दोस्त फ़िल्म देखने जाने के लिए मेरा इंतजार कर रहे थे, हम तेजी से अंदर गए और सब फ़टाफ़ट अपनी -अपनी सीट पर बैठ गए। इंटरवल होने पर जब मैं अपने दोस्तों के साथ पॉपकार्न लेने के लिए बाहर निकली, मैनें उसे फ़िर देखा, वो सेंडविच खा रहा था---इस समय वो सादे कपडों में था, आश्चर्य !!! मैं सोचने लगी उसे कपडे बदलने का समय कब मिल गया ??? मैं विश्वास नहीं कर पा रही थी कि वो सिनेमा हॉल के भीतर था.........मुझे थोडा- बहुत अंदाजा लगा कि उसने मेरी और मेरी बहन की बातें सुन ली होंगी और जान गया होगा कि मैं अपने दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने जाने वाली हूँ , फ़िर ड्रेस चेंज करके अभी इंटरवल के पहले ही यहाँ पहूंचा होगा।मुझे आश्चर्य मिश्रीत खुशी हो रही थी, जब मैंने उसे अपनी ओर आते देखा-----
---नमस्ते
---नमस्ते
---अच्छी फ़िल्म है न ??
---हाँ ,कह सकते हैं,कुछ अनमने मन से मैंने जबाब दिया था।.........उसने मुझसे बातचीत का सिलसिला कुछ ऐसे शुरू किया--जैसे हम एक-दूसरे को बहुत समय से जानते हों।
---"रोशन"उसने हाथ बढ़ाते हुए अपना नाम बताया ..........................मैनें उससे मुस्कराते हुए हाथ मिलाया...सोच रही थी कि इसे अपना नाम बताउं या नहीं ?
----"आपसे मिलकर अच्छा लगा "काव्या"" ...............
मैं सोच ही रही थी कि इसे मेरा नाम कैसे पता चला कि उसने आगे कहा---मैंने आपकी बहन को आपका नाम लेकर पुकारते हुए सुना था जब आप केंटीन से बाहर जा रही थी।
"ओह".........वह मुझसे बातचीत का सिलसिला जारी रखना चाहता था पर आसपास के सारे लोग सिनेमा हॉल में जाना शुरू हो गए थे क्यों कि इंटरवल खतम होने आया था ।.....क्रमश:.......

भाग - १
भाग - २
भाग - ३

Thursday, November 10, 2011

माय लाईफ़ स्टोरी ...पर मेरी नहीं ..

"मेरी जीवन गाथा" भाग ३
मेरे जीवन में सिर्फ़ इस एक अनुत्तरित प्रश्न के अलावा एक बात तो साफ़ हो चुकी थी ---सात सालों से चली आ रही मेरी शादी तोडने का मेरा निर्णय सही था। एक ऐसा निर्णय जो मैं ले पाई सिर्फ़ शान्तनु के सहयोग से ही ......

           मेरी जीवन-यात्रा शुरू होती है--मेरे जन्म से ,परन्तु मेरी वास्तविक जीवन -यात्रा शुरू होती है ---उस दिन से जब मैंने अपनी बहन के इंजिनियरिंग कॉलेज की सीढी पर अपना पहला कदम रखा था---मेरा स्वयं का प्रवेश-पत्र जमा करने के लिए, और तब से लेकर अब तक जो कुछ भी हुआ या होता रहा ----मैं किसी पर भी नियंत्रण नहीं रख पाई। ये सब कुछ ऐसा था -जैसा कि मैंने पहले बताया कि --"मैं हर दिन को अपने तरीके से जीने में विश्वास रखती हूँ, और इसीलिए मैं जीवन-धारा की लहरों मे उछलती -बहती रही --जब तक कि मैंने अपना किनारा न पा लिया। कुछ लोगों ने कहा भी-कि मैं गलत किनारे पर जा लगी हूँ, पर मुझे विश्वास है कि मेरे जीवन में अनेकों तुफ़ानों के थपेड़े खाकर भी अन्त में मैं सही किनारे पर पहुँच ही गई।

                  रोशन उस टीम का सदस्य था, जिसे रामाराव आदिक टेक्नॉलॉजी इंस्टिट्यूट ने अपनी कंपनी के लिए नये और टेलेंटेड कम्प्यूटर इंजिनियर तलाशने के लिए भेजा था । वो मेरी बहन का साक्षात्कार ले रहा था और मैं अपनी बहन के कमरे से बाहर आने का इंतजार कर रही थी, ताकि हम साथ में लन्च कर सकें। मेरे साथ चंद मिनटों के बाद ही क्या कुछ घटित होने वाला है, मुझे इसका तिनके भर भी अंदाजा नहीं था। मुझे जोरों की भूख लगी थी और देर होने से बडा गुस्सा आ रहा था, क्योंकि इसके बाद दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने जाना था। मै तो उसे छोडकर ही जाना चाहती थी, मगर मेरी बहन ने मुझसे रूकने के लिए विनती की थी, सो मुझे रूकना पड़ा था ।
         थोडे इंतजार के बाद वो कमरे से बाहर आई, उसके चेहरे के हाव-भाव ही मुझे बता रहे थे कि उसका साक्षात्कार अच्छा नहीं हुआ था ।....क्रमश:........
 पहला भाग पढे़ यहाँ--१
 दूसरा भाग पढ़े यहाँ--२

Monday, November 7, 2011

माय लाईफ़ स्टोरी ...पर मेरी नहीं ..

 "मेरी जीवन गाथा"..भाग २
...कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिनकी व्याख्या नहीं की जा सकती .............इसलिए नहीं की वे अजीब होते हैं,बल्कि इसलिए कि वे सामान्य रिश्तों से ऊपर होते हैं --जिनको परिभाषित नहीं किया जा सकता। कुछ लोग इस तरह के रिश्तों को दोस्ती का नाम दे देते है लेकिन अधिकतर ऐसे रिश्तों को शक की निगहों से ही देखते हैं ।...मेरे-शान्तनु के साथ लगाव से बने रिश्त्ते को भी कोई नाम नहीं दिया जा सकता या उसे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता ।...........एक बेनामी समबन्ध !............हम प्रेमी -प्रेमिका नहीं थे,  फ़िर भी हम सिर्फ़ दोस्त भी नहीं थे ।हम दोनों के बीच में कुछ खास था जो हम एक -दूसरे से बांटते थे ...................भौतिक दुनिया से परे ....कुछ अलग ,कुछ खास ...जिसे कोई भी अब तक समझ नहीं सका है ।
               आज जब मैं अपने अतीत की गहराईयों में झांकती हूँ,तो मेरे सामने एक प्रश्न खडा हो उठता है---मैं अपने आप से पूछती हूँ--- क्या मुझे शान्तनु से शादी कर लेनी चाहिए ?,क्या एक मौका दिया जा सकता था ?और उत्तर भी जैसे तैयार रहता था ----"नहीं" । जबकि मैं उसकी बेटी की माँ हूँ--फ़िर भी शान्तनु वो व्याक्ति नहीं है,जिसे मैं अपने जीवन साथी के रूप में देखाना चाहती हूँ। मैं उसके साथ हमबिस्तर होने की कल्पना भी नहीं कर सकती ।उसका मेरी जिन्दगी में होना एक सुखद घटना थी --इस बारे में कोई शक नहीं है मुझे।हम दोनोंने जीवन-यात्रा में ऐसे सहयात्री बनकर यात्रा की --जो साथ चलते-चलते मिले और फ़िर अन्त में अपनी-अपनी राह चले गए।
                     शान्तनु अपने स्वर्गीक पडाव पर पहले ही पहुँच गया ,यहां तक कि मुझे उससे प्यार करने का मौका भी नहीं मिला।मैं बहुत आश्चर्यचकित होती कि मुझे उससे प्यार हुआ होता,यदि वो जिवीत होता ।
                           मैं इस प्रश्न का उत्तर भी नहीं दे सकती  ---क्योंकि इस बारे में मुझे खुद निश्चित तौर पर पता नहीं था ।आखिरकार मैनें भी तो जीवन --जीते-जीते ही सब-कुछ जाना था ।एक चीज अच्छी तरह से समझ गई थी कि "जीवन की धारा अपनी मर्जी से ही बहती है उसके रास्ते और पडावों के बारे में कोई भी अन्दाजा नहीं लगा सकता" ।.....क्रमश:
पहला भाग पढ़े यहाँ --१

Sunday, November 6, 2011

माय लाईफ़ स्टोरी ...पर मेरी नहीं ..

जीवन में जाने क्या- क्या करना बाकी रहता है ...जो चाहते हैं वो तो होता नहीं, और न चाहते हुए भी बहुत कु्छ हो जाता है ।
ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ है ....एक किताब (जिसके कवर पॄष्ठ का डिजा़ईन वत्सल ने बनाया है, अंग्रेजी में है) देखने के लिए हाथ में आई ...


कुछ नया करनें की धुन और वत्सल की जिद्द के कारण..उसका अनुवाद अपने शब्दों में करना शुरू किया .....पता नहीं अनुवाद हुआ या नहीं ....पर एक नया काम तो जरूर हो गया ....:-)


आज ट्रायल के तौर पर पहला भाग छाप रही हूँ यहाँ .....अच्छा लगा (और मन हुआ तो).....आगे भी मिल सकेगा पढ़ने को .....
इस पुस्तक को अंग्रेजी में लिखा है--ARTI HONRAO ने..जिनके बारे में आप यहाँ जान सकते हैं --
१--Lafz 




"मेरी जीवन गाथा"..भाग १

मै हर दिन को अपने तरीके से जीने मे विश्वास रखती थी,जब तक कि मेरे रास्ते में ऐसी परिस्थियां पैदा न हो गई जिनमें मुझे ऐसे कठोर निर्णय लेना पडे।...कुछ निर्णय अपनी जीवन धारा को अलग ही राह पर ले जाते हैं..मैने जो निर्णय लिया उसने भी मेरे जीवन को एक नई दिशा दी......हालांकि मेरे जीवन में भी आम लोगों की तरह उतार -चढाव आते रहे फ़िर भी कह सकती हूँ.......उतार ही उतार ज्यादा आए ....मैने अपने जीवन में स्थिरता बहुत समय बाद पाई ..........या मै कह सकती हूँ कि देर से ही सही पर मेरे जीवन में भी स्थिरता आई तो सही ..........
मै अपनी जीवन धारा को  तब स्थिर कर पाई..जब शांतनु मेरे जीवन में आया ......शांतनु मेरे जीवन में बरखा की उस पहली बूँद की तरह आया जो सालों से बंजड पडी,फ़टी धरती पर कई दिनों के इंतजार के बाद गिरी हो ,और उस धरती की सौंधी महक --जो मेरे अंतर में समाई और जिसने मुझे अपने जिंदा होने का अहसास कराया । ..जैसे किसी प्यासे के कानों ने झरने की आवाज सुनी हो या ....लम्बे समय तक मीलों चलने के बाद या.....सालों अंधेरे में चलने के बाद ..........किसी को उजाले की एक किरण दिखाई दी हो..........दूसरे शब्दों में मै कह सकती हूँ---कि शांतनु ने मुझमें जीवीत रहने की आशा का संचार किया ..........
..........शांतनु मेरे पति का दोस्त था, मैं यहाँ बताना चाहती हूँ ---कि था शब्द का प्रयोग मैंने इसलिए किया क्यों कि शांतनु ने जो कुछ भी मेरे पति के साथ किया था ,,उसके बाद मेरे पति ने उसे अपना दोस्त मानने से इंकार कर दिया था .....उन्हें गलत फ़हमी थी कि जो कुछ भी हुआ वो सब शांतनु ने ही किया था .मेरे पति के अनुसार शांतनु ही हमारी शादी के टूटने का कारण था ......फ़िर भी यदि कोई मुझे से पूछे--तो मै कहना चाहूँगी कि रोशन अपने बचाव के लिए ये कारण बताता है, जबकि वो स्वयं अपनी पत्नी को सुखी नही रख पाया और उसके मनोभावों को समझ ही नही पाया .......क्रमश: