जगमगाई है
नन्ही सी चिरैया भी
नन्ही सी चिरैया भी
चह्चहाई है
ओस का बोझ
ओस का बोझ
नन्ही दूब ढो नहीं पा रही
और कीचड़ से सने अपने पैर
और कीचड़ से सने अपने पैर
धो नहीं पा रही
कहीं-कहीं बादल
अब भी कड़क रहे हैं
सूरज के डर से
सूरज के डर से
दूर ही बरस रहे हैं....
अपनी- अपनी रोटी तलाशने को
फ़िर भी मजदूरों को जगा आया सूरज
सपनों की दुनिया से
अपनी- अपनी रोटी तलाशने को
फ़िर भी मजदूरों को जगा आया सूरज
सपनों की दुनिया से
हमको लौटा लाया सूरज !
1 comment:
सुन्दर चित्रावली।
सार्थक रचना।।
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