Saturday, May 23, 2009

एक था बचपन

एक था बचपन --------
आजकल
स्कूलों की छुट्टियाँ चल रही है |आजू -बाजू के घरों में बच्चे दिन भर कैद कर दिए गए हैं |सबके भैया -दीदीयों के कॉलेज चालू है |सबकी माताजी परेशान है कि बच्चे दिन भर छोटे -से घर को सर पर उठा लेते हैं|पिताजी परेशानी से बचने के लिए बच्चों को किसी क्लास में डाल देने कि सलाह देते पाये जाते हैं,क्योंकि अब किसी घर में सर खपाने के लिए दादा -दादी नहीं पाये जाते है |बेचारे बच्चे करें तो क्या करें , सबकी कचकच से बचने के लिए सुबह देर से उठते हैं |किसी तरह नहाना ,खाना निबटाते हैं, टी वी या कम्प्यूटर से चिपक जाते हैं----अपने समय से तुलना करती हूँ तो बहुत कुछ याद आता है -------(शायद आपको भी अपना कोई खेल याद जाए )---------

"खो गया वो "बचपन" ,
जिसमें था "सचपन" ,
गुम हो गई "गलियां" ,
गुम हो गए "आंगन " ,
अब न वो "पाँचे" ,
ना ही वो "कंचे" ,
न रही वो "पाली" ,
ना "डंडा -गिल्ली" ,
न वो "घर-घर का खेल" ,
न शर्ट को पकड़कर बनती "रेल" ,
अब मुन्नी न पहनती --वो "माँ की साड़ी" ,
ना मुन्नू दौडाता--"धागे की खाली रील की गाडी" ,
खो गए कही वो "छोटे -छोटे बर्तन खाली" ,
जिसमे झूठ - मूठ का खाना पकाती थी --मुन्नी ,लल्ली ,
थोडी देर के लिए पापा -मम्मी बन जाते थे रामू और डॉली ,
अब न आँगन में "फूलो की क्यारी" ,
उदास -सी बैठी है गुडिया प्यारी ,
खो गई अब वो गुडिया की सहेली "संझा",
और भाई का वो "पतंग और मांझा" ,
ना दिखती कही साईकिल पर "सब्जी की थैली" ,(सुबह )
सडssssप की आवाज वो "चाय की प्याली" , (शाम )
"छुपा-छुपी" का वो खेल खो गया ,
खेलने का समय भी देखो--- अब कम हो गया !!!!!!








6 comments:

विनोद कुमार पांडेय said...

सच मे
खो गया वो बचपन हमारा,
एक अमूल्य और प्यारा
समय जिसे जब हम याद करते है,
तो फिर से बच्चे बन जाए,
ऐसा दिल से फरियाद करते है.

PN Subramanian said...

"झूट मूट का खाना पकातीं" सही में बचपन लुट सा गया है. हो सकता है कि आज कल के बच्चों को वो बातें पूरानी पीढी की लगें लेकिन सत्य तो यही है कि बचपन अब अतीत बन कर रह गयी है. बड़ी प्यारी रचना थी आपकी. आभार.

surya goyal said...

बधाई भाई साहब, बचपन पर आपने जो तर्क दिए है वो सहरानीय है . क्या खूब लिखा है . विनोद जी का कहना ठीक है की आज वो बचपन खो सा गया है . में भी ऐसी ही कुछ गुफ्तगू करता हूँ आपका स्वागत है मेरे ब्लॉग पर . www.gooftgu.blogspot.com

Manish Kumar said...

Sahi kaha ab sanyukt parivar ke bade logon ki jagah computer aur Tv ne le rakhi hai.
humare yahan to din dhalte hi bachchon ki dhamachoukadi chaloo ho jati hai. Purane khel aaj bhi naye sabdon ke sath khele ja rahe hain. Kal hi seekha ki pehle ka oonch neech aaj ka denga pani ho gaya hai.

प्रकाश said...

"एक था बचपन
बचपन मे एक बाबूजी थे" अशोक कुमार का वह रोल याद आ गया।

शोभना चौरे said...

aj apka blog phli bar dekha .apna sa lga .
गुम हो गए "आंगन " ,
अब न वो "पाँचे" ,
ab to panche shabd bhi koi n phchan paye .
bhut sundar abhivykti.