Tuesday, September 20, 2011

मन की उड़ान....


मन के उन कटे पंखों से
जिन्हें कतर दिया था मैने कभी
मैं उड़ना चाहती हूँ आज,
उँचे आकाश में,दूर तक 
जुड़ना चाहती हूँ,मेरे अपनों से 
इस धरा को छोड़... 
तुम साथ दो मेरा 
ठीक वैसे -जैसे
लटका दे कोई रत्नावली अपनी चुटिया

तुलसी के लिए
और खींच ले अपनी ओर 

ताकि मुक्त हो जाऊँ 
पृथ्वी के बंधन से
खुल जाये जकड़न 

मर्यादाओं की जंग लगी जंजीरों की

 न जाने क्यूँ??

आज मैं तुलसी हो जाना चाहती हूँ...!!!

23 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

समर्पण में मन की शान्ति असीम है।

रश्मि प्रभा... said...

इस तुलसी हो जाने की ख्वाहिश में कितना कुछ है ...

Kailash Sharma said...

सम्पूर्ण समर्पण की लाज़वाब सोच...बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति..

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

जगत का बंधन है ऐसा
चाहकर भी तोडना मुश्किल बड़ा है.
मित्र, परिजन और जाने कितने
चीन्हे और अनचीन्हे से
धागों से बंधा है जगत का बंधन.
नहीं इसके नियंता हम कि
यह तो उसने लिख रखा था
न जाने कब से
मेरे और तुम्हारे नाम से
और इसके-उसके सबके नामों से
नहीं इसको बदल सकना किसी के बस में है
बस साथ चलना है इसी के
साथ जो तेरे खडा है,
जगत का बंधन है ऐसा
चाहकर भी तोडना मुश्किल बड़ा है.

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत सुंदर ...निशब्द करती रचना

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

तुलसी होने में गहन कथ्य है ...सुन्दर प्रस्तुति

Udan Tashtari said...

कितना गहरा उतरी आप तुलसी बन चढ़ जाने की चाह में....अद्भुत...आपको साधुवाद इस विशिष्ट सोच के लिए...

Smart Indian said...

बहुत बढिया! स्वतंत्रता की चाह मानव मन में सदा ही रहेगी।

संजय भास्‍कर said...

आपकी तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है मासी .........शानदार लेखन

वाणी गीत said...

न जाने क्यों आज तुलसी हो जाना चाहती हूँ ...
तुलसीदास के साथ ही उस कथा का स्मरण हो आया , जब तुलसी /वृंदा के कारण शालिग्राम की स्थापना हुई!

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

'लटका दे कोई रत्नावली अपनी चुटिया

तुलसी के लिए
और खींच ले अपनी ओर'
*************************
*************************
आज मैं तुलसी हो जाना चाहती हूँ !!!'

................ऊँचे भावों की पवित्र रचना

Dr (Miss) Sharad Singh said...

बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है.
कृपया पधारें
चर्चामंच-645,चर्चाकार- दिलबाग विर्क

सदा said...

मर्यादाओं की जंग लगी जंजीरों की

न जाने क्‍यूं
?
आज मैं तुलसी हो जाना चाहती हूँ !!

वाह ... दिल को छूती पंक्तियां ... बहुत ही अच्‍छा लिखती हैं आप ....आभार ।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...





आदरणीया अर्चना जी
सादर सस्नेहाभिवादन !


मन के उन कटे पंखों से
जिन्हें कतर दिया था मैने कभी
मैं उड़ना चाहती हूं आज

बहुत सुंदर भावमयी पंक्तियां …

…और कविता का पावन पटाक्षेप …
आज मैं तुलसी हो जाना चाहती हूं…
बहुत ख़ूब !

एक गायिका की रचना पढ़ना बहुत सुखद है … सचमुच ! :)


बहुत समय बाद आया हूं आपके घर … लेकिन तृप्त हो'कर लौट रहा हूं … लेखनी चलती रहे … ! हार्दिक शुभकामनाएं हैं !

मंगलकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

लाज़वाब.... भावमयी रचना...
सादर....

daanish said...

भावपूर्ण रचना में
काव्य-समर्पण भी निहित है

अनुपम .

देवेन्द्र पाण्डेय said...

गज़ब का भाव है समर्पण का।

vijaymaudgill said...

रचना ही पहले तो आपका बहुत-2 शुक्रिया। दूसरा आपके मन की उड़ान सच में असीम है..... और तीसरा वो लेखन ही क्या जो किसी के संदूक में बंद रहे। आप जो चाहें, जैसा चाहे कर सकती हैं। अनुमति मांग कर आप शर्मिंदा कर रही हैं।......बहुत बहुत शुक्रिया आपका

Avinash Chandra said...

सुन्दर! बहुत सुन्दर!

Girish Kumar Billore said...

एक सहज आकांक्षा
क्रांतिकारी कविता
वाह

अरुण चन्द्र रॉय said...

इस कविता की जान अंतिम पंक्तियों में है... मन विह्वल हो गया है...

कविता रावत said...

man ke bhavon ki sundar prastuti.
.आज मैं तुलसी हो जाना चाहती हूँ...!!!