मन के उन कटे पंखों से
जिन्हें कतर दिया था मैने कभी
मैं उड़ना चाहती हूँ आज,
उँचे आकाश में,दूर तक
जुड़ना चाहती हूँ,मेरे अपनों से
इस धरा को छोड़...
तुम साथ दो मेरा
ठीक वैसे -जैसे
लटका दे कोई रत्नावली अपनी चुटिया
तुलसी के लिए
और खींच ले अपनी ओर
ताकि मुक्त हो जाऊँ
पृथ्वी के बंधन से
खुल जाये जकड़न
मर्यादाओं की जंग लगी जंजीरों की
न जाने क्यूँ??
आज मैं तुलसी हो जाना चाहती हूँ...!!!
23 comments:
समर्पण में मन की शान्ति असीम है।
इस तुलसी हो जाने की ख्वाहिश में कितना कुछ है ...
सम्पूर्ण समर्पण की लाज़वाब सोच...बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति..
जगत का बंधन है ऐसा
चाहकर भी तोडना मुश्किल बड़ा है.
मित्र, परिजन और जाने कितने
चीन्हे और अनचीन्हे से
धागों से बंधा है जगत का बंधन.
नहीं इसके नियंता हम कि
यह तो उसने लिख रखा था
न जाने कब से
मेरे और तुम्हारे नाम से
और इसके-उसके सबके नामों से
नहीं इसको बदल सकना किसी के बस में है
बस साथ चलना है इसी के
साथ जो तेरे खडा है,
जगत का बंधन है ऐसा
चाहकर भी तोडना मुश्किल बड़ा है.
बहुत सुंदर ...निशब्द करती रचना
तुलसी होने में गहन कथ्य है ...सुन्दर प्रस्तुति
कितना गहरा उतरी आप तुलसी बन चढ़ जाने की चाह में....अद्भुत...आपको साधुवाद इस विशिष्ट सोच के लिए...
बहुत बढिया! स्वतंत्रता की चाह मानव मन में सदा ही रहेगी।
आपकी तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है मासी .........शानदार लेखन
न जाने क्यों आज तुलसी हो जाना चाहती हूँ ...
तुलसीदास के साथ ही उस कथा का स्मरण हो आया , जब तुलसी /वृंदा के कारण शालिग्राम की स्थापना हुई!
'लटका दे कोई रत्नावली अपनी चुटिया
तुलसी के लिए
और खींच ले अपनी ओर'
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आज मैं तुलसी हो जाना चाहती हूँ !!!'
................ऊँचे भावों की पवित्र रचना
बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....
आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है.
कृपया पधारें
चर्चामंच-645,चर्चाकार- दिलबाग विर्क
मर्यादाओं की जंग लगी जंजीरों की
न जाने क्यूं
?
आज मैं तुलसी हो जाना चाहती हूँ !!
वाह ... दिल को छूती पंक्तियां ... बहुत ही अच्छा लिखती हैं आप ....आभार ।
♥
आदरणीया अर्चना जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
मन के उन कटे पंखों से
जिन्हें कतर दिया था मैने कभी
मैं उड़ना चाहती हूं आज
बहुत सुंदर भावमयी पंक्तियां …
…और कविता का पावन पटाक्षेप …
आज मैं तुलसी हो जाना चाहती हूं…
बहुत ख़ूब !
एक गायिका की रचना पढ़ना बहुत सुखद है … सचमुच ! :)
बहुत समय बाद आया हूं आपके घर … लेकिन तृप्त हो'कर लौट रहा हूं … लेखनी चलती रहे … ! हार्दिक शुभकामनाएं हैं !
मंगलकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
लाज़वाब.... भावमयी रचना...
सादर....
भावपूर्ण रचना में
काव्य-समर्पण भी निहित है
अनुपम .
गज़ब का भाव है समर्पण का।
रचना ही पहले तो आपका बहुत-2 शुक्रिया। दूसरा आपके मन की उड़ान सच में असीम है..... और तीसरा वो लेखन ही क्या जो किसी के संदूक में बंद रहे। आप जो चाहें, जैसा चाहे कर सकती हैं। अनुमति मांग कर आप शर्मिंदा कर रही हैं।......बहुत बहुत शुक्रिया आपका
सुन्दर! बहुत सुन्दर!
एक सहज आकांक्षा
क्रांतिकारी कविता
वाह
इस कविता की जान अंतिम पंक्तियों में है... मन विह्वल हो गया है...
man ke bhavon ki sundar prastuti.
.आज मैं तुलसी हो जाना चाहती हूँ...!!!
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