लम्बे होते हैं
घंटे दोपहर के
नवतपा में
जलती धरा
लू के थपेड़ों संग
मृत- जीवन
आओ बादलों
बरसो रिमझिम
बचा लो तृण
तनिक अब
सूरज ले विश्राम
मिले आराम
जन-जीवन
ले लें चैन की सांस
दो पल रूक
महके धरा
नभ के अमृत से
सौंधी सौंधी सी
खिले कोपलें
करें प्रकृति अब
नव श्रृंगार
चहके पंछी
वन उपवन में
सुबह-शाम
पशु लाचार
न तरसें छांह को
न ही पानी को
आओ बादलों
बरसो रिमझिम
जीवन दे दो....
3 comments:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (07-06-2014) को ""लेखक बेचारा क्या करे?" (चर्चा मंच-1636) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
दो पल रूक महके धरा
नभ के अमृत से
सौंधी सौंधी सी
ग्रीष्म के रुद्रावतार के बाद पहले बारिश की यही बात मुझे बहुत भाती है। सुंदर हाइकू।
आओ बादलों
बरसो रिमझिम
जीवन दे दो....
सच जल है तो कल है
सुनेंगे पुकार जरूर लेकिन समय से
बहुत सुन्दर
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