Saturday, December 19, 2015

बच्ची

एक बच्ची का हँसना
एक बच्ची का रूठना
एक बच्ची का चहकना
एक बच्ची का खिलखिलाना
एक बच्ची का नाचना
एक बच्ची का थिरकना
एक बच्ची का ठुमकना
एक बच्ची का मुस्कुराना
एक बच्ची का उठना
एक बच्ची का चलना
एक बच्ची का खेलना
एक बच्ची का संभलना
देखा है कभी तुमने?

एक बच्ची का रोना
एक बच्ची का घुटना
एक बच्ची का तड़पना
एक बच्ची का सिसकना
एक बच्ची का खोना
एक बच्ची का टूटना
एक बच्ची का बिछड़ना
एक बच्ची का मचलना
एक बच्ची का बचना
एक बच्ची का मरना
एक बच्ची का गिरना
एक बच्ची का बिगड़ना
आखिर चाहते क्या हो?

Friday, December 18, 2015

कबूतरों को उड़ाने से क्या ?

चलते-चलते   नामक ब्लॉग लिखते हैं केवलराम ....और ब्लॉग पर क्या-क्या लिखते हैं ये आप वहीं जाकर पढ़े तो बेहतर जान पाएंगे

ये पोस्ट बहुत पहले रिकार्ड की थी ..आज इसे आपको सुनने के लिए यहाँ लाई हूँ ...

Tuesday, December 15, 2015

मैं हूँ न!




मैं तुम्हें यहाँ लाई थी 
मेरी बिटिया 
मेरी लाड़ो, 
मुझे लगता था 
इस घुटन भरी दुनिया के 
कुछ बाशिन्दों को 
जीने की वजह देने से 
उनके चेहरे भी मुस्कुरा सकते हैं 
तुम्हारी मुस्कान से 
पर मैं शायद गलत थी 
ये दुनिया सिर्फ़ घुटन भरी ही नहीं है 
दहशत भरी भी है 
जहाँ साँस लेना मुश्किल है 
तुम सी तितली का..... 
नोंच कर कली को 
फ़ेंक देते हैं यहाँ दरिंदे
फूलों की खुशबू से 
उनका कुछ लेना-देना नहीं 
मैं नहीं चाहती 
तुम्हारी मुस्कान खोना 
और किसी दरिन्दे द्वारा
तुम्हारे इन्द्र धनुषी परों का कतरा जाना....
पर तुम डरो नहीं ............





मैं हूँ न!

खींच लूँंगी उनके प्राण ...
ताकि हो जाए
उसी क्षण मौत उन दरिन्दों की
जिस क्षण उनके मन में
ये विचार आए ....

जिससे -
हर कली खिले,महके 
और मुस्कुरा पाए ....
और दुनिया में
"नानी की बेटी" कहलाए 







Sunday, December 13, 2015

मधुर याद







रात के उन लम्हों की बात बताउँ

जिनमें मौन ही मैं सब बोल गई...



एक-एक उलझन जो मन में थी 

तेरे आगे सुलझाकर कर खोल गई...



झंकॄत हो मन .गया थिरक-थिरक

सिहरन हुई और देह भी डोल गई...



साँसों की सरगम पे ताल मिली जब

मधुयामिनी मन में मधुरस घोल गई..


-अर्चना

Friday, December 11, 2015

जब मैं बड़ी हो जाउंगी ,तब मेरे पापा आएंगे

चार -पाँच दिन पहले एक सड़क हादसे में एक परिवार के मुखिया की मॄत्यु हो गई ,नेज गति के डम्पर से टकरा गई थी उनकी कार ........  उनकी पत्नी,पिता और दो बेटियाँ भी साथ थे .. .पत्नी के पैर में फ़्रेक्चर है ...पिता अब तक आई सी यू में है .(माँ का पहले ही देहान्त हो चुका है)... बड़ी बेटी जो कि मेरी स्कूल में के.जी. वन की विद्यार्थी है .....
मैं और हमारी वाइस प्रिन्सिपल मेडम कल उनके घर गए थे  .... 
बहुत दुखद होता है ऐसा समय ...घर पर बडे भाई मिले .....पता चला कि पिता को अभी बताया नहीं है कि बेटे का देहान्त हो गया है ..... पत्नी कभी बदहवास सी हो रो पड़ती -कभी चुप सी शून्य में ताकती ...देखा नहीं जा रहा था ..न कुछ कहते बन रहा था ...... छोटी बेटी दो माह की है और अपनी मामी की गोदी में बिलख रही थी .... पत्नी का मायका भी यहीं होने से पूरा परिवार साथ था.....
जितनी भी देर मैं रही एक भी शब्द न बोल सकी .... सांत्वना का ...:-( ......जैसे किसी ने मुँह सिल दिया हो मेरा ....
शायद मेरा अतीत मेरे सामने आ ठिठका- सा खड़ा हो गया था और मैं उसे देख अवाक थी! ....
चूँकि उस परिवार के सभी बच्चे मेरी ही स्कूल में पढ़ते हैं, वाइस प्रिन्सिपल मेडम ने ढाढस बंधाते हुए कहा कि जो होना था हो गया ,हमारे हाथ में कुछ नहीं होता ... आप अपना ध्यान रखें और बच्चों को स्कूल भेजें ,....
उन्होंने हामी भरी कि बड़े बच्चों के साथ ये बच्ची भी चली जायेगी ,इसलिये भेज देंगे ...थोड़ा सबके लिए ठीक होगा ....
आज बच्ची स्कूल आई थी .... अपनी क्लास टीचर से बताया कि मेरी नानी ने कहा है -
"जब मैं बड़ी हो जाउंगी ,तब मेरे पापा आएंगे".............  

सब कुछ जानते हुए भी बच्चों से झूठ कहना होता है ..... मालूम है कि बच्ची समय के साथ संभल जायेगी ...लेकिन समय का क्या ठिकाना ! .... कभी फिर से धोखा दे जायेगा .... ये डर जिन्दगी भर हर आती-जाती साँस के साथ लगा रहता है .....
और मैं जानती हूँ -परिवार एक पीढ़ी पिछड़ जाता है विकास दर में ...... 

Sunday, December 6, 2015

अनवरत चलने वाली कहानी का खूबसूरत पन्ना

 जब मैंने स्कूल में कार्य करना शुरू किया उस समय मुझे पता नहीं था - मैं किस तरह कार्य करूँगी ... परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन गई थी कि मेरे सामने आगे जीवन चलाना और साथ दो बच्चों का भरण-पोषण करना एक चुनौती था ....
बात है सन १९९८ अप्रेल की ...तब बेटा सातवीं में और बेटी चौथी की परिक्षा दे रहे थे .... बेटा साईकिल से स्कूल जाता था अपने दो-तीन दोस्तों के साथ ...एक दिन वापस लौटते हुए अपने एक पिछड़े साथी को मुड़कर देखने के चक्कर में सामने आए पत्थर से टकरा कर ऐसे गिरा कि सामने के दो दाँत टूट गए ....
घर आकर जैसे ही सबको पता चला सब बहुत चिंतित हो गए ..कारण ये कि सब भुक्तभोगी थे ....मैं खुद खेलते हुए छठी कक्षा में ही तुड़वा चुकी थी अपने दो दाँत ....बिलकुल सेम -टू- सेम और तब शिरूआती लापरवाही की वजह से पस पड़ गया था ....

खैर ! तय किया कि परिक्षा खतम होते ही इन्दौर जाकर बेहतर इलाज करवाया जाय और तब तक कुछ दिन सिर्फ़ तरल खाना और साफ़ सफ़ाई का खयाल रखा जाए .....

इन्दौर आए इलाज के लिए ...साथ ही सोचा कि बच्चों की बेहतर शिक्षा की खातिर जो कि व्यवधान आने से गड़बड़ा गई थी उन्हें फिर से सी.बी.एस.ई. स्कूल में भेजा जाए और जरूरत पडे तो बेटे को होस्टल में रखा जाए ....
मेरी सहेली की मदद से इस स्कूल का पता लगा ..जो शहर से १३ किलोमीटर दूर था उस समय ....सहेली और भानजे के साथ स्कूल गए ...होस्टल देखा और प्रिंसिपल मेडम से बात की एडमिशन के लिए ....  उन्होंने सारी बातें जानने के बाद ऑफ़र दिया - कि अगर चाहो तो वार्डन का जॉब ले सकती हो जिससे सिर्फ़ लड़कों का होस्टल होने के बाद भी तुम अपने साथ लड़की को रख सकती हो .... रहना ,खाना और पढ़ाई ....मेरे सामने ये तीन समस्याएं ही मुँह उठाए खड़ी थी ....फिर भी कभी घर से बाहर निकल कर कहीं काम नहीं किया था नौ साल घर ही संभाला था ....और कुछ सोचा भी नहीं .... कोई निर्णय पिता से पूछे बिना कभी नहीं लिया था ,तुरंत हाँ न कह सकी ...मैंने जबाब दिया- पिताजी से पूछ कर बता पाउँगी ....
उन्होंने ८-१५ दिन का समय दिया ... मैंने फोन से पिताजी को बताते हुए पूछा- क्या कहूँ ? ...
जबाब मिला - वे कोई बाँध कर तो रख नहीं लेंगे , तुम्हारा मन कहे तो करके देख लो ,अच्छा न लगे तो फिर घर आ जाना ! ...
बस! यहीं से शुरूआत हुई खुद निर्णय लेने की और हिम्मत आई कि-अपनी इच्छा के बगैर तो कोई कुछ करवा नहीं सकता ....
मैंने हाँ कहा ...मुझे तारीख मिली २२ जून १९९८ ....और पिताजी का देवलोक गमन हो गया २८ मई १९९८ ....

मैं आ गई स्कूल .... तय करके कि जो भी हो परिस्थियों का मुकाबला करना है ...

एक-एक करके सारे काम सीखती गई .... सभी शिक्षकों से पूछ-पूछकर .... सबसे ज्यादा सीखा नवीन रावत सर से जो फिजिकल एजूकेशन शिक्षक थे ....
 मेरे तीन साल वार्डन रहते होस्टल के बच्चों के साथ सारे खेल खेलती.... बाद में खेल शिक्षिका हुई ....

लेकिन स्कूल का कोई कोना ऐसा नहीं जहाँ मेरी यादें न हों ..और कोई कार्य ऐसा नहीं जो मैंने किया न हो ...
कहने को खेल शिक्षिका मगर संगीत,आर्ट,रिसेप्शन,हिन्दी,..... सबका रोल निभाने मिला ....... यहाँ तक कि बच्चों के कपड़े भी धोए और उन्हें रोटी भी बनाकर खिलाई   .... सबसे सुखद रहा स्कूल में "बेस्ट टीचर" का पुरस्कार मिलना ...वो भी स्कूल के २५ वें वार्षिकोत्सव में

ये बहुत आसान लगा मुझे -आप भी कर सकते है --किजीये कुछ नया---हर दिन...

एक प्रयोग ये भी ---पहली बार किया है ,तकनिकी जानकारी बढने के बाद सुधार की गुंजाईश है.....अभी ये चलेगा न.....

Wednesday, December 2, 2015

अन्तिम दिन और एक गीत

2/12/1996........2/12/2015
19 साल...
पर उस दिन को ,उस पल को
भूलना आसान नही,
भुलाना भी क्यों?
और कैसे?
जबकि अंतिम सांस की आहट
और खड़खड़ाहट
गूंजती है अब भी
कानों में
और ये आँखे बंद
होकर भी नहीं होती
महसूसती हूँ
आज भी
अंतिम स्पर्श
...................
और
सुनाई देती है चीख
अंतिम मौन की....
......................
रात भर का साथ
और निर्जीव देह
एक नहीं दो ....

बस!
दिखाई देता है
जीवन यात्रा का
पूर्णविराम
.... जहाँ लिखा था-
ॐ नमो नारायणाय......
.........
वक्त के साथ
सफर जारी है मेरा
ॐ शांति शांति शांति...... -अर्चना वो भूली दासतां लो फिर याद आ गई ---