Friday, September 17, 2010

बता सकते हो?

कांटो में फंस चुकी हूँ ,हंसने को कहते हो क्यों
न  ठौर न ठिकाना,बसने को कहते हो क्यों
एक भी सुराख ना मिला अब तक मुझे
यूं किरण बनकर चमकने को कहते हो क्यों...

20 comments:

वीना श्रीवास्तव said...

बहुत अच्छा लिखा है

एक भी सुराख ना मिला अब तक मुझे
यूं किरण बनकर चमकने को कहते हो क्यों..

क्या बात है...

arvind said...

एक भी सुराख ना मिला अब तक मुझे
यूं किरण बनकर चमकने को कहते हो क्यों..
...vaah laajavaab.

Satish Saxena said...

सब कुछ तो कह दिया यहाँ ....

Urmi said...

वाह क्या बात है! बहुत बढ़िया लिखा है आपने!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरत अभिव्यक्ति

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

सुन्दर रचना! "सच में" पर आने और सुन्दर विचार व्यक्त करने के लिये धन्यवाद!

दीपक 'मशाल' said...

काफी अच्छी बन पड़ी है ये क्षणिका..

उम्मतें said...

किरण को अपना काम करना चाहिए !

राजीव तनेजा said...

सुन्दर क्षणिका

संजय कुमार चौरसिया said...

बहुत अच्छा लिखा है

संजय कुमार चौरसिया said...

बहुत अच्छा लिखा है

हमारीवाणी said...

अच्छी अच्छा लिखा है



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टीम हमारीवाणी

आज की पोस्ट-
हमारीवाणी पर ब्लॉग पंजीकृत करने की विधि

सम्वेदना के स्वर said...

क्योंकि इसी में जीवन है...संघर्ष से जूझकर प्राप्त जीवन!!

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही व्यग्रता समेटे पंक्तियाँ।

उन्मुक्त said...

यह कविता ही है न।

Udan Tashtari said...

उन्मुक्त जी को बतायेंगी तो हम भी सुन लेंगे जबाब...


वैसे है अच्छी. :)

एक बेहद साधारण पाठक said...

भावनाओं का सुनामी
इतने कम शब्दों में ??

कमाल है .. वाह .. वाह

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मुक्तक बहुत सुन्दर है!

उपेन्द्र नाथ said...

bahoot achchhe jazbat........

Asha Joglekar said...

बहुत बढिया क्षणिका ।