पिछले दिनों फेसबुक पर किसी की शेअर की हुई कहानी पढ़ी,मालूम नहीं सच थी या कहानी थी,उसमें बताया था कि एक स्त्री अपने पति की मृत्यु के बाद अपने छोटे से बेटे को कई मुश्किलों का सामना कर के बड़ा करती है,उसकी हर सुविधा का ध्यान रख कर उसे उच्च शिक्षा दिलवाती है बच्चा आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाता है ,वहीं शादी कर लेता है, माँ उसके आने की राह देखती रहती है,लेकिन वो नहीं लौटता,स्त्री के अड़ोसी-पड़ोसी इस बीच उसका खयाल रखते हैं, उसको अपने परिवार का सदस्य मानकर सम्मान देते हैं ,और आखिर में वो बीमार हो जाती है ,बेटे को बीमारी की खबर भी कर दी जाती है, और उसके आने का इंतजार करते हुए स्त्री अपनी अंतिम साँसे गिनती है,पर चल बसती है उसकी ईच्छा बेटे से मिलने की पूरी नहीं हो पाती...
उसी बेटे के व्यवहार से अड़ोसी-पड़ोसी दुखी होकर भी अब उसकी माँ की ईच्छा और सम्मान की खातिर उसके घर की चाबी उसके सुपुर्द करने का इंतजार कर रहे हैं, कि अब शायद वो आए.....
मुझे अपनी दादी की कही एक कहावत याद आई -
पूत सपूत तो क्यों धन संचय
और पूत कपूत तो क्यों धन संचय....
सही है-
बेटा हो या बेटी,अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के साथ जिम्मेदार बनाना भी उतना ही जरूरी है .....धन का संचय जरूरत से ज्यादा करना व्यर्थ है,बच्चों को मितव्ययिता के साथ संयम सिखाना भी बहुत जरूरी है..और ये पाठ पाठ्यपुस्तकों में नहीं मिलेंगे .... अगर बच्चे खुद सपूत यानि काबिल हुए तो कभी आप पर निर्भर होना नहीं चाहेंगे, खुद कमा लेंगें,आप चिंता न करें,और अगर कपूत हुए तो सदा आप पर निर्भर राह आपका संचित धन उजाड़ देंगे,,तब संचित धन व्यर्थ गलत उपयोग होकर नष्ट हो जाना है .....
उन्हें आप पर निर्भर नहीं रखना चाहिए ...
लेकिन "ममता","समाज",और "लोग क्या कहेंगे"जैसी बातों के चलते सदा समाज में ऐसी कहानियाँ दोहराई जाती रही हैं/रहेंगी.....
पता नहीं कब तक
वही आंसू
......
फिर वही शांती
फिर वही पैग
फिर वही पिता
फिर वही माता
फिर वही कुपुत्र
और ...
अनंत तक चलने वाली
शान्ति की खोज ....